लम्बे समय से आराक्षण् के आग मे सभी जल गए जिसमे प्रमुख् रहा राजनीति मे आरक्ष्ण् का ,1947 से आरक्ष्ति सीटो पर आरक्षित वर्गेां का कब्जा रहा लेकिन क्या आरक्षित वर्गों का भला हो पाया और क्या राजनेता आरक्षित वर्ग का भला करने मे सक्षम है लम्बे दौर से आरक्षण केवल नीची जाति वर्ग के लोगों के लिए ही है जो आज तक चले आ रही है। ये भारत मे वर्ग विशेष की दबाव नीति से निचे वर्ग खासकर अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति को आरक्षण है आजादी के बाद भी शिक्षा,राजनिती, व्यवसाय और कई स्थानों पर आरक्षण का मिलना एक अलग तरह के भेदभाव को जन्म देता है, खासकर ऐसा वर्ग जो आज तक अपनी उपस्थ्िति समाज मे सभ्य मानसिकता के तौर पर बना नही पाएं , लेकिन सोचने वाली बात ये है कि अपने आरक्षित क्षेत्र से राजनेता भी गएं और आरक्षण बना भी रहा पर भेदभाव खत्म क्यो खत्म नही हुआ। क्यो आख्रिर आरक्षण की जरूरत राजनेताओं को पड रही है
लोकसभा चुनाव और गर्मी महीना अपने उम्म्ीदवारों के चयन मे ही राजनीतिक पार्टियां सिमट कर रह जाएंगी सबसे पहले तो भेदभाव ही ये प्रत्याशी और प्रतिनिधि बनाते है। अगर बात करे छत्तीसगढ् प्रदेश् की तो हाल ही मे सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में रायपुर के ऐसे प्रत्याशी (नंदे साहू ) जो लम्बे से राजनीति में सक्रिय नही रहें, जितना कि विपक्षी पार्टी के प्रत्याशी (सत्यनारायण् शर्मा) सक्रिय रहे और प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कार्यकारी अध्यक्ष पद पर रहे । रायपुर राजधानी में भी साहूवाद जातिवाद हावी रहा है, जिसके कारण् नंदे साहू जीते और विधानसभा भी गए । साहू जी की जीत जातिगत समीकरण् और भेदभाव को बढावा देने की बात करे तों शायद कुछ गलत नही ।
अब फिर एक बार जातिगत समीकरनों की चर्चा है जो कि लोकसभा प्रत्याशी चयन के लिए आवश्यक मान ली गई है। छत्तीसगढ् मे 11 लोकसभा सीट के लिए मात्र जांजगीर संसदीय क्षेत्र ही अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित है जिसमें सर्वाधिक 42 उम्मीदवार की कतार है जो अपनी-अपनी दावेदारी पेश् कर रहे है अनुसूचित जाति वर्ग के प्रदेश भर के उम्मीदवार अपनी सीट पक्की मान रहे है लेकिन जातिगत समीकरण पर कोई प्रत्याशी बात करते ही नही । बडे-बडे दिग्गज नेता जो अनुसूचित जाति वर्ग के है वे सभी आरक्षित सीट से ही लडने की मंशा जता रहे है और अगर जीत भी गए तो ना ही संसदीय क्षेत्र का भला होगा और ना ही अनुसूचित जाति वर्गो का, कुछ महत्तवपूर्ण बिन्दुओ पर चर्चा करे तो- नकल प्रकरण मे जांजगीर संसदीय क्षेत्र प्रदेश् मे नंबर वन पर है ,, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति वर्ग के बावजूद रोजगार में पीछे है। ,, शिक्षा में यहां के निवासी बिलासपुर और रायपुर पर निर्भर है
जांजगीर संसदीय क्षेत्र के लिए 42 उम्मीदवार ,क्षेत्र का विकास और आरक्षित वगौ्ं की होड ,मतदाताओं के लिए सोचनीय विषय हो सकती है अगर मतदाता जागरूक हो तो
Tuesday, February 17, 2009
Tuesday, February 3, 2009
ऑस्कर के लिए अक्सर मे ना बदल जाएं
स्लमडॉग मिलेनियर जो भारत मे देर से रिलीज हुई अगर आस्कर तक नही पहूंचती तो शायद भारत मे भी रिलीज नही होती जो कि भारत देश मे मायानगरी मुंबई की सच्चाई पर बनी है मुंबई की गलियों से सच्चाई बयां करती ये फिलम सभी प्रदेशों की कहानी भी हो सकती है भीख मांगने से पहले की सच्चाई बयां करना से लेकर करोड्पति बनना और बाल विकास विभाग की ओर से तारीफ करना कि वास्तविक से रूबरू कराने वाली फिल्म को ऑस्कर मिलना चाहिए
ऑस्कर मिले या ना मिले लेकिन सामाजिक संस्था और सरकार के बचपन को लेकर ऐसे अनेक वादे हुए है तारे जमीं पर उतारे गए और एक नौजवान करोडपति भी बना फिर भी भारत देश की दशा नही सुध्ारी दिखीा दिशा सुधारने की बात ही छोडिएंा मधुर भंडारकर असलियत को पर्दे पर उतारने मे माहिर माने जाते है जो ट्रेफिक सिग्नल मे दिख भी, वही आमिर खान गिने चुने फिल्मों मे अपनी अदाकारी की छाप छोडते है ये सारे मशहूर हस्तियां जिसके सामने ये विषय कोई समस्या ना होकर पैसा बनाने की मशीन है फिर भी वास्तविक्ता यही है आज भी लोग भूखे नंगेऔर सडक पर सोने को मजबूर है शायद इनको ऑस्कर मिलता तो अमीरी गरीबी का भेदभाव कम होता लेकिन अक्सर ऐसा नही होगा मेरे देश मे गरीब गरीब ही रहे तो ठीक है आदिवासी छोटे कपडे पहने तो ठीक, कबिलों देहात गांवो में कोई महिला अर्दनग्न दिख्ो तो ठीक है क्यों कि पैसा बनाते है अगर गरीबी खत्म हो गई तो पैसा कमाने का नया आयडिया कहां से आएंगे
स्लमडॉग मिलेनियर को ऑस्कर एवार्ड मिलने या ना मिलने के पीछे एक बात जरूर सोचनीय है कि अगर ये एवार्ड एक ऐसी फिल्म को मिलती जिससे कि जाति, धर्म, छुआछुत रंगभेद सब मिट जाएं तो शायद हमारे महापुरूषों और अनगित देशवासियों पर भारतीय होने का गर्व सौगुणा और बढ जाएगां ,, स्लमडॉग मिलेनियर फिलम का 11 नामांकन होना अवार्ड मिलने की उम्मीद तो बढाती है लेकिन आजादी के इकसठ् साल बाद भी ऐसे हालातों पर तरस आनी चाहीएं कि रेल्वे स्टेशन पर क्यों भीख दिया जाएं, उस बच्चे को भीख्ा की बजाय अधिकारों के बारे में क्यों नही बताया जाएं, क्यो ना हर व्यक्ति अपने अधिकारों का ख्याल रखकर जिला अधिकारी से सवाल करे की बच्चे आखिर ऐसा क्यो कर रहे है कौन मजबूर कर रहा है इन्हे अपना बचपन बर्बाद करने के लिएा
ऑस्कर नामांकित स्लमडॉग मिलेनियर को मेरी अग्रिम शुभकामनाएं
ऑस्कर मिले या ना मिले लेकिन सामाजिक संस्था और सरकार के बचपन को लेकर ऐसे अनेक वादे हुए है तारे जमीं पर उतारे गए और एक नौजवान करोडपति भी बना फिर भी भारत देश की दशा नही सुध्ारी दिखीा दिशा सुधारने की बात ही छोडिएंा मधुर भंडारकर असलियत को पर्दे पर उतारने मे माहिर माने जाते है जो ट्रेफिक सिग्नल मे दिख भी, वही आमिर खान गिने चुने फिल्मों मे अपनी अदाकारी की छाप छोडते है ये सारे मशहूर हस्तियां जिसके सामने ये विषय कोई समस्या ना होकर पैसा बनाने की मशीन है फिर भी वास्तविक्ता यही है आज भी लोग भूखे नंगेऔर सडक पर सोने को मजबूर है शायद इनको ऑस्कर मिलता तो अमीरी गरीबी का भेदभाव कम होता लेकिन अक्सर ऐसा नही होगा मेरे देश मे गरीब गरीब ही रहे तो ठीक है आदिवासी छोटे कपडे पहने तो ठीक, कबिलों देहात गांवो में कोई महिला अर्दनग्न दिख्ो तो ठीक है क्यों कि पैसा बनाते है अगर गरीबी खत्म हो गई तो पैसा कमाने का नया आयडिया कहां से आएंगे
स्लमडॉग मिलेनियर को ऑस्कर एवार्ड मिलने या ना मिलने के पीछे एक बात जरूर सोचनीय है कि अगर ये एवार्ड एक ऐसी फिल्म को मिलती जिससे कि जाति, धर्म, छुआछुत रंगभेद सब मिट जाएं तो शायद हमारे महापुरूषों और अनगित देशवासियों पर भारतीय होने का गर्व सौगुणा और बढ जाएगां ,, स्लमडॉग मिलेनियर फिलम का 11 नामांकन होना अवार्ड मिलने की उम्मीद तो बढाती है लेकिन आजादी के इकसठ् साल बाद भी ऐसे हालातों पर तरस आनी चाहीएं कि रेल्वे स्टेशन पर क्यों भीख दिया जाएं, उस बच्चे को भीख्ा की बजाय अधिकारों के बारे में क्यों नही बताया जाएं, क्यो ना हर व्यक्ति अपने अधिकारों का ख्याल रखकर जिला अधिकारी से सवाल करे की बच्चे आखिर ऐसा क्यो कर रहे है कौन मजबूर कर रहा है इन्हे अपना बचपन बर्बाद करने के लिएा
ऑस्कर नामांकित स्लमडॉग मिलेनियर को मेरी अग्रिम शुभकामनाएं
Sunday, February 1, 2009
क्या होगा हम हिन्दुओं का.....।
बसंत पंचमी पर्व भारत में अपना विशेष महत्व रखता है। क्योंकि इसी दिन से बसंत रितु की शुरूआत होती है। लंबे समय से ज्ञान की देवी सरस्वती मां की पूजा-अर्चना की जाती रही है, जो आज भी चल रही है। जो कि स्कूलों-कॉलेजों में बड़े रूप में मनाए जाते हैं। हिन्दू धर्म में सरस्वती माता को ज्ञान की देवी भी कहा जाता है। हिन्दू होने के नाते मुझे गर्व होने के बजाय ये सवाल मन में है कि आखिर हिन्दू देवी-देवताओं का सम्मान कहां पर हो रहा है।
मेरे मोहल्ले और कॉलेज में अण्डा पेड़ लगाकर पूजा-अर्चना शुरू की गई और तरह-तरह के कार्यक्रमों से दिन को यादगार बनाने की कोशिश भी की गई। हिन्दू धर्म के अनुसार ज्ञान की देवी माता सरस्वती है। लेकिन क्या दूसरे धर्म के लोग भी माता सरस्वती को ज्ञान की देवी मानते हैं। मेरे इस प्रश्न से अच्छे-अच्छे विचारों पर विराम लग सकता है। क्योंकि अगर सभी धर्म के लोग सरस्वती माता को ज्ञान की देवी नहीं मानते। तो फिर मेरे धर्म के लोग सरस्वती माता का अपमान खुशी से क्यों स्वीकार कर रहे हैं। इस मान, सम्मान और अपमान की बात के बीच सार्वजनिक जगहों पर पत्थर रखकर सिंदूर लगाकर पूजना और फिर देवी-देवताओं को मंदिर के बजाय रोड, गंदगी या फिर किसी भी सार्वजनिक स्थानों पर पूजना क्या हिन्दू धर्म के संस्कार हैं। अगर नहीं तो क्यों ऐसे काम हिन्दुवादी विचारधारा वाले कर रहे हैं। क्या सिर्फ पूजा-पाठ, यज्ञ करने से ही धर्म की सर्वोच्च्ाता बढ़ती है।
मेरे विश्वविद्यालय में बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा और हवन कार्यक्रम आयोजित की गई और सभी छात्रों ने हिस्सेदारी भी निभाई, सिवाय मेरे........... । मेरे पूजा-पाठ में शामिल नहीं होने पर मेरे मित्र तरह-तरह की धारणाएं बनाने लगे। कुछ मित्रों ने मुझे कहा कि क्यों हिन्दू धर्म में रहने का इरादा नहीं है क्या पापी। तो कुछ छात्रों ने आतंकवादी कहकर संबोधित किया। पत्रकारिता के छात्रों के इस कृत्य पर हंसी तो आई लेकिन बसंत पंचमी कीफिकर करके मैं चुप हो गया। कुछ अन्य धर्म के मित्र मेरे साथ लाइब्रेरी में बैठे बोलने लगे कि अरे यार तेरे धर्म में देवी-देवताओं को सार्वजनिक जगह में पूजने का क्या अर्थ, इनका स्थान तो मंदिर में होना चाहिए। कुछ देर तक मैं चुप बैठा लेकिन वास्तव में मुझे अपने धर्म में रहकर अपने ही हिन्दू धर्म के लोगों पर गुस्सा भी आया। चूंकि हिन्दू धर्म पहले से ही वर्ण-व्यवस्था से घिरी हुई है, जिसमें शुद्रों की स्थिति दयनीय है। हिन्दू धर्म में ब्राह्मण वर्ग का श्रेष्ठ होना और धर्म को बदनाम करने की साजिश क्या वास्तव में उच्च वर्णों के हाथ में है।
ब्राह्मणवाद को लेकर मुझे कोई शिकायत नहीं है। शिकायत तो मुझे हिन्दू देवी-देवताओं का सार्वजनिक जगहों में पूजने पर है। हिन्दू धर्म के अलावा किसी भी धर्म के लोग अपने ईश्वर के साथ इतनी ज्यादती नहीं करते सिवाय हिन्दू धर्म के। मार्क्स के विचार कि राष्ट्र के विकास में धर्म अफीम है। इसके बावजूद भी क्या देश में हिन्दू देवी-देवताओं का और हिन्दू धर्म का हित हो पाएगा।
मेरे मोहल्ले और कॉलेज में अण्डा पेड़ लगाकर पूजा-अर्चना शुरू की गई और तरह-तरह के कार्यक्रमों से दिन को यादगार बनाने की कोशिश भी की गई। हिन्दू धर्म के अनुसार ज्ञान की देवी माता सरस्वती है। लेकिन क्या दूसरे धर्म के लोग भी माता सरस्वती को ज्ञान की देवी मानते हैं। मेरे इस प्रश्न से अच्छे-अच्छे विचारों पर विराम लग सकता है। क्योंकि अगर सभी धर्म के लोग सरस्वती माता को ज्ञान की देवी नहीं मानते। तो फिर मेरे धर्म के लोग सरस्वती माता का अपमान खुशी से क्यों स्वीकार कर रहे हैं। इस मान, सम्मान और अपमान की बात के बीच सार्वजनिक जगहों पर पत्थर रखकर सिंदूर लगाकर पूजना और फिर देवी-देवताओं को मंदिर के बजाय रोड, गंदगी या फिर किसी भी सार्वजनिक स्थानों पर पूजना क्या हिन्दू धर्म के संस्कार हैं। अगर नहीं तो क्यों ऐसे काम हिन्दुवादी विचारधारा वाले कर रहे हैं। क्या सिर्फ पूजा-पाठ, यज्ञ करने से ही धर्म की सर्वोच्च्ाता बढ़ती है।
मेरे विश्वविद्यालय में बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा और हवन कार्यक्रम आयोजित की गई और सभी छात्रों ने हिस्सेदारी भी निभाई, सिवाय मेरे........... । मेरे पूजा-पाठ में शामिल नहीं होने पर मेरे मित्र तरह-तरह की धारणाएं बनाने लगे। कुछ मित्रों ने मुझे कहा कि क्यों हिन्दू धर्म में रहने का इरादा नहीं है क्या पापी। तो कुछ छात्रों ने आतंकवादी कहकर संबोधित किया। पत्रकारिता के छात्रों के इस कृत्य पर हंसी तो आई लेकिन बसंत पंचमी कीफिकर करके मैं चुप हो गया। कुछ अन्य धर्म के मित्र मेरे साथ लाइब्रेरी में बैठे बोलने लगे कि अरे यार तेरे धर्म में देवी-देवताओं को सार्वजनिक जगह में पूजने का क्या अर्थ, इनका स्थान तो मंदिर में होना चाहिए। कुछ देर तक मैं चुप बैठा लेकिन वास्तव में मुझे अपने धर्म में रहकर अपने ही हिन्दू धर्म के लोगों पर गुस्सा भी आया। चूंकि हिन्दू धर्म पहले से ही वर्ण-व्यवस्था से घिरी हुई है, जिसमें शुद्रों की स्थिति दयनीय है। हिन्दू धर्म में ब्राह्मण वर्ग का श्रेष्ठ होना और धर्म को बदनाम करने की साजिश क्या वास्तव में उच्च वर्णों के हाथ में है।
ब्राह्मणवाद को लेकर मुझे कोई शिकायत नहीं है। शिकायत तो मुझे हिन्दू देवी-देवताओं का सार्वजनिक जगहों में पूजने पर है। हिन्दू धर्म के अलावा किसी भी धर्म के लोग अपने ईश्वर के साथ इतनी ज्यादती नहीं करते सिवाय हिन्दू धर्म के। मार्क्स के विचार कि राष्ट्र के विकास में धर्म अफीम है। इसके बावजूद भी क्या देश में हिन्दू देवी-देवताओं का और हिन्दू धर्म का हित हो पाएगा।
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