26 जनवरी एक ऐसा पर्व जिसका इंतजार हर देशवासियों और खासकर देशभक्तों को आस रहती है मेरी प़त्रकारिता और कुछ अलग करने की उम्मीद ने मुझे एक बार फिर अपने अपने अस्तित्व की ओर झाकने को मजबूर किया है उच्च शिक्षा प्राप्त मेरी शिक्षा देश के काम नही आई. शिक्षा का महत्तव बताने वाले शिक्ष्ाक मुकदर्शक बन सभी आयोजनो का मजा लेते रहेा पता नही चला की 26 जनवरी की सुबह देश के महत्तव को जानने के लिए था या संविधान के अनुसार अपने कार्य को अपनी जिम्मेदारी के साथ पूर्ण करने का
गली मोहल्ले मे तिरंगा फहराने का इंतजार करते लोग और खुशी के बीच मेरी चुप्पी ना जाने क्यों मन ही मन चुभ रही थी तिरंगे के नीचे महापुरूषों की दुर्दशा अपने अपमान से कम नही इन सब मे भी चौकाने वाली बात रही गांधीमय ध्वजारोहण मै मेरी भावनाओं के साथ या किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड करना नही चाहता लेकिन मेरी बेबाकी जायज है क्यों कि संविधान के निर्माता डा; भीमराव अम्बेडकर फिर अछूते दिखें ृृृृृ आजादी से पूर्व अपने आजादी की परवाह किए बिना अछूतों के हक की लडाई लडने वाले मेरे आदर्श महापुरूष को उन्ही लोगो ने अछूत बना दिया जो गर्व से इस महापुरूष के च्रयास से उच्च पदो पर आसीन है। गली मोहल्ले कालोनी मे तो गांधी मगर मेरे देश में क्या बाबा साहब के लिए नही है. मै हमेशा तो ऐसी मांगे नही करता लेकिन क्या बाबा साहेब को पूजा जाना या उनके कार्यों की बखान करना अछूतों की श्रेणी मे खडा करता है मुझे मेरी जिम्मेदारीयों का एहसास भी है फिर भी मै कुछ नही कर सकता
मै दावा के साथ कह सकता हू की मेरे देश मे छूआछूत खत्म नही हुआ है और छूआछूत खत्म करना कोई नही चाहता क्यो की मान-सम्मान और प्रतिष्ठा इसी सें बनी रहती है इन सबके बावजूद कोई संविधान के बारे मे कुछ बताना नही चाहता और क्यो बताएं अगर आम लोगो को अपने अधिकारों की जानकारी हो गई और जाग गए तों देश में भ्रष्ट मंत्री अधिकारी आई एस कुलपति नही बनेंगे लेकिन कुछ स्वार्थ के लिए महापुरूषो का अपमान हुआ है खासकर एससी एसटी और ओबीसी वर्ग के उच्च पदस्थ लोगो को शर्म आनी चाहिए जो इन महापरूषों के सम्मान के लायक नही है।
Monday, January 26, 2009
Friday, January 9, 2009
शिक्षा के क्षेत्र में जातिवाद हावी
भारत को लोकतांत्रिक देश की संज्ञा दी गई है लेकिन लोगों का जीवन लोकतांत्रिक देश के अनुकूल नही है यहां हर क्षेत्र में समस्या ही समस्या है लोगों की समस्या के समाधान करने वाले को दबा दिया जाता है और न्याय संगत बाते करने पर आरोप जड़ दिए जाते हैं। ये किसी किताब से पढ़ा हुआ नही है और ना ही किसी के द्वारा बताया गया हैं। ऐसे हालात मुझ पर ही बन चुके हैं या कहे शिक्षा व्यवस्था पर वर्ग विशेष्ा का दबाव है कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविघालय अपने लक्ष्य से भटक चुका है पत्रकारिता की शिक्षा देने के बजाय (ब्राम्हण) वर्ग विशेष को अच्छे नम्बर दिए जाते है मेरा मक्सद हिन्दू धर्म की बुराई करना तो नहीं, लेकिन बेबाक बोलना मेरी बुराई है ये सभी शिक्षक कहते है सेमेस्टर की पढाई परीक्षा का परिणाम आ चुका है जिसका कोई औचित्य नही है पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष भी अधिकतर छात्र-छात्राएं परीक्षा परिणाम को लेकर असंतुष्ट हैं। वहीं इस वर्ष चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। उत्तीर्ण परीक्षार्थियों की संख्या 76.92 प्रतिशत रही और अधिकतर छात्रों को पूरक दे दिया गया। लेकिन इन सबमें भी चौकाने वाली बात रही। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के छात्र जीतेन्द्र सोनकर को एक विषय में पूरक दे दिया गया। जोकि निजी टीवी चैनल में संबंधित विषय के अंतर्गत कार्यरत् हैं। जिस विषय में पूरक दिया गया वो है एडिटिंग ग्राफिक्स। जिसे बतौर नॉन लीनियर एडिटर की मुख्य भूमिका में 3 साल का अनुभव है। मीडिया क्षेत्र में अनुभव प्राप्त छात्र को पूरक देना विश्वविद्यालय के लिए एक शर्मनाक बात है और जाहिर है कि परीक्षा परिणाम में त्रुटियां पाई गई है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विभागाध्यक्ष से इस विषय पर बात करने पर आश्वासन के सिवाय कुछ न्याय संगत बातें नहीं मिली।
विभिन्न विषयों के परिणामों को देखें तो चौकाने वाले परिणाम आते हैं जिसमें लगातार 2 सेमेस्टर से प्रथम श्रेणी पर उत्तीर्ण छात्र को इस बार सेकेण्ड दर्जा दिया है। वहीं एम.जे. के छात्र में भी काफी फेरबदल हुए हैं। कुल मिलाकर सभी विषयों में विशेष वर्ग को महत्व दिया गया है। जितने भी छात्र पहले पायदान पर पहुंचे हैं वे सभी ऊंची जाति के हैं। जिनमें अधिकतर शर्मा, मिश्रा, शुक्ला जैसे उपनाम वाले छात्र हैं। वहीं पिछले सेमेस्टर के परिणाम में जाति विशेष को दर्जा नहीं दिया गया था। इस सेमेस्टर के उत्तीर्ण छात्र जो कि अच्छे नंबरों से अच्छे पायदान पर पहुंच चुके हैं। उन छात्रों को अच्छे पायदान पर पहुंचने का अंदाजा तो दूर पूरक आने तक का डर था। उसी डर ने इस तरह की जातिगत नंबरों को महत्व देने के आधार पर विश्वविद्यालय पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
असंतुष्टों की श्रेणी में ब्राह्मण वर्ग को छोड़ सभी निम्न वर्ग की श्रेणी में आते हैं। एस.टी.,एस.सी. और ओबीसी छात्र-छात्राओं का गुस्सा फूट रहा है। वाकई अगर हालात ऐसे ही बने तो वो दिन दूर नहीं जब हिन्दू खुद आपस में वर्ग विशेष के लिए न्याय पाने हिंसात्मक कदम उठा लेंगे। विश्वविद्यालय में बहुत सारी गतिविधियां ऐसी होती है जो कि जाति के आधार पर जाति में खुद को ऊंचे पायदान पर पहुंचाने की कोशिश रहती है। मेरा मकसद न ही जातिगत भावनाओं में फूट डालना है और न ही जाति के आधार पर भेदभाव करना है। लेकिन अगर बात शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र की हो तो शिक्षा अधिकारी को चुप नहीं बैठना चाहिए क्योंकि राष्ट्रभक्ति में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मेरा स्वयं पूरक आना पता नहीं मेरी पत्रकारिता में कितने आड़े आती है, लेकिन मैं उन पत्रकारों में से नहीं हूं जो प्रथम श्रेणी के आधार पर पत्रकार बनते हैं। अनगिनत लेखकों एवं विद्वानों के मदद से मैं अपनी बेबाकी को समय आने पर ज़रूर प्रस्तुत करूंगा।
विभिन्न विषयों के परिणामों को देखें तो चौकाने वाले परिणाम आते हैं जिसमें लगातार 2 सेमेस्टर से प्रथम श्रेणी पर उत्तीर्ण छात्र को इस बार सेकेण्ड दर्जा दिया है। वहीं एम.जे. के छात्र में भी काफी फेरबदल हुए हैं। कुल मिलाकर सभी विषयों में विशेष वर्ग को महत्व दिया गया है। जितने भी छात्र पहले पायदान पर पहुंचे हैं वे सभी ऊंची जाति के हैं। जिनमें अधिकतर शर्मा, मिश्रा, शुक्ला जैसे उपनाम वाले छात्र हैं। वहीं पिछले सेमेस्टर के परिणाम में जाति विशेष को दर्जा नहीं दिया गया था। इस सेमेस्टर के उत्तीर्ण छात्र जो कि अच्छे नंबरों से अच्छे पायदान पर पहुंच चुके हैं। उन छात्रों को अच्छे पायदान पर पहुंचने का अंदाजा तो दूर पूरक आने तक का डर था। उसी डर ने इस तरह की जातिगत नंबरों को महत्व देने के आधार पर विश्वविद्यालय पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
असंतुष्टों की श्रेणी में ब्राह्मण वर्ग को छोड़ सभी निम्न वर्ग की श्रेणी में आते हैं। एस.टी.,एस.सी. और ओबीसी छात्र-छात्राओं का गुस्सा फूट रहा है। वाकई अगर हालात ऐसे ही बने तो वो दिन दूर नहीं जब हिन्दू खुद आपस में वर्ग विशेष के लिए न्याय पाने हिंसात्मक कदम उठा लेंगे। विश्वविद्यालय में बहुत सारी गतिविधियां ऐसी होती है जो कि जाति के आधार पर जाति में खुद को ऊंचे पायदान पर पहुंचाने की कोशिश रहती है। मेरा मकसद न ही जातिगत भावनाओं में फूट डालना है और न ही जाति के आधार पर भेदभाव करना है। लेकिन अगर बात शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र की हो तो शिक्षा अधिकारी को चुप नहीं बैठना चाहिए क्योंकि राष्ट्रभक्ति में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मेरा स्वयं पूरक आना पता नहीं मेरी पत्रकारिता में कितने आड़े आती है, लेकिन मैं उन पत्रकारों में से नहीं हूं जो प्रथम श्रेणी के आधार पर पत्रकार बनते हैं। अनगिनत लेखकों एवं विद्वानों के मदद से मैं अपनी बेबाकी को समय आने पर ज़रूर प्रस्तुत करूंगा।
Wednesday, January 7, 2009
ताराचंद छत्तीसगढिया बनाम प्रेमप्रकाश बिहारी
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भाजपा के दिग्गजों की हार से आलाकमान को कार्यवाही करने के लिए मजबूर होना पड़ा। भिलाई विधानसभा से पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पाण्डे को हराने के लिए भाजपा सांसद ताराचंद साहू पर कार्यवाही कर उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। पार्टी से निष्कासित होने के बाद भाजपा सांसद ताराचंद साहू के तेवर नरम नहीं पड़े बल्कि और ज्यादा गर्म हो गए हैं। जो बात भिलाई तक सीमित थी। अब निष्कासन के पश्चात पूरे प्रदेश में फैल गई कि छत्तीसगढि़यों की अस्मिता को समझने के लिए छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी प्रत्याशी और जनता का प्रिय होना ज़रूरी है।
मुद्दा वही पुराना है। जब महाराष्ट्र में बिहारियों पर लाठी बरस रहे थे। तो वहीं छत्तीसगढ़ में भी अस्मिता के लिए सांसद ताराचंद साहू और उनके समर्थकों ने भिलाई के बिहारी नेता (पूर्व विधानसभा अध्यक्ष) प्रेमप्रकाश पाण्डे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और देखते ही देखते बात मारपीट तक पहुंच गई है। जो कि आज तक चल रही है। छत्तीसगढ़ प्रदेश एक औद्योगिक क्षेत्र है। जहां अधिकतर रोजगार बिहारियों को और दक्षिण भारतीयों को मिला है। जहां भिलाई की कहें तो छोटा बिहार के नाम से भी जाना जाता है। ये मुद्दा क्षेत्रवाद का नहीं है, लेकिन स्थानीय निवासियों को हीन-भावना से देखना और बिहार के लोगों को भिलाई में रोजगार दिलाने जैसे कार्य को लंबे समय से प्रेमप्रकाश पाण्डे करते आ रहे हैं। छत्तीसगढियों को डरा-धमकाकर अपने रिश्तेदारों, पहचानवालों को इस्पात संयंत्र में रोजगार दिलाने जैसी बात लंबे समय से चल रहा है। चूंकि पाण्डे जी इस्पात संयंत्र के अध्यक्ष भी थे जिनकी पहचान वरिष्ठ अधिकारियों से भी थी। जो छत्तीसगढियों के शोषण के लिए बहुत था। समय बीतने के साथ अधिकतर बिहारियों का दमन भिलाई के छत्तीसगढियों के खिलाफ बढ़ता गया। महाराष्ट्र की घटना ने छत्तीसगढियों की नींद उड़ा दी और अपने हक के लिए भिलाई निवासी शक्ति प्रदर्शन (मारपीट) करने से नहीं चूके।
राजठाकरे की भूमिका ने भले ही महाराष्ट्र में आग लगाई है लेकिन छत्तीसगढ़ में भी इसका असर देखा गया और छत्तीसगढिया बिहारियों के वर्चस्व ने लड़ाई के लिए विवश किया। मुझे ज़्यादा जानकारी बिहारियों के बारे में नहीं था। लेकिन भिलाई जाने पर पता चला कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासी झोपड़ी में और बिहारी बड़ी मंजिलों में रहते हैं इसका मुख्य कारण बिहारियों की असलियत सामने लाती है। मगर सोचने के लिए प्रेरित करने वाला वाक्या ये है कि क्या पूरे प्रदेश में बिहारी ऐसे ही हैं या फिर बिहार के लोग ही ऐसा करते हैं। पूरे प्रदेश का तो पता नहीं लेकिन फिलहाल सांसद और पूर्व विधायक के बीच छत्तीसगढियों और बिहारियों के वर्चस्व की लड़ाई भाजपा ने सांसद ताराचंद साहू के निष्कासन से शुरू कर दिया है। और आगे चलकर इसका परिणाम भी मिल सकता है। लेकिन बिहारियों का भविष्य छत्तीसगढ़ में ? ? ?
मुद्दा वही पुराना है। जब महाराष्ट्र में बिहारियों पर लाठी बरस रहे थे। तो वहीं छत्तीसगढ़ में भी अस्मिता के लिए सांसद ताराचंद साहू और उनके समर्थकों ने भिलाई के बिहारी नेता (पूर्व विधानसभा अध्यक्ष) प्रेमप्रकाश पाण्डे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और देखते ही देखते बात मारपीट तक पहुंच गई है। जो कि आज तक चल रही है। छत्तीसगढ़ प्रदेश एक औद्योगिक क्षेत्र है। जहां अधिकतर रोजगार बिहारियों को और दक्षिण भारतीयों को मिला है। जहां भिलाई की कहें तो छोटा बिहार के नाम से भी जाना जाता है। ये मुद्दा क्षेत्रवाद का नहीं है, लेकिन स्थानीय निवासियों को हीन-भावना से देखना और बिहार के लोगों को भिलाई में रोजगार दिलाने जैसे कार्य को लंबे समय से प्रेमप्रकाश पाण्डे करते आ रहे हैं। छत्तीसगढियों को डरा-धमकाकर अपने रिश्तेदारों, पहचानवालों को इस्पात संयंत्र में रोजगार दिलाने जैसी बात लंबे समय से चल रहा है। चूंकि पाण्डे जी इस्पात संयंत्र के अध्यक्ष भी थे जिनकी पहचान वरिष्ठ अधिकारियों से भी थी। जो छत्तीसगढियों के शोषण के लिए बहुत था। समय बीतने के साथ अधिकतर बिहारियों का दमन भिलाई के छत्तीसगढियों के खिलाफ बढ़ता गया। महाराष्ट्र की घटना ने छत्तीसगढियों की नींद उड़ा दी और अपने हक के लिए भिलाई निवासी शक्ति प्रदर्शन (मारपीट) करने से नहीं चूके।
राजठाकरे की भूमिका ने भले ही महाराष्ट्र में आग लगाई है लेकिन छत्तीसगढ़ में भी इसका असर देखा गया और छत्तीसगढिया बिहारियों के वर्चस्व ने लड़ाई के लिए विवश किया। मुझे ज़्यादा जानकारी बिहारियों के बारे में नहीं था। लेकिन भिलाई जाने पर पता चला कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासी झोपड़ी में और बिहारी बड़ी मंजिलों में रहते हैं इसका मुख्य कारण बिहारियों की असलियत सामने लाती है। मगर सोचने के लिए प्रेरित करने वाला वाक्या ये है कि क्या पूरे प्रदेश में बिहारी ऐसे ही हैं या फिर बिहार के लोग ही ऐसा करते हैं। पूरे प्रदेश का तो पता नहीं लेकिन फिलहाल सांसद और पूर्व विधायक के बीच छत्तीसगढियों और बिहारियों के वर्चस्व की लड़ाई भाजपा ने सांसद ताराचंद साहू के निष्कासन से शुरू कर दिया है। और आगे चलकर इसका परिणाम भी मिल सकता है। लेकिन बिहारियों का भविष्य छत्तीसगढ़ में ? ? ?
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