Monday, April 13, 2009

छत्‍तीसगढ़ में मतदान तक होगा भाजपा का प्रचार इसमें सभी का होगा साथ।

योग से निरोग का रास्‍ता दिखाने वाले योगगुरू बाबा रामदेव देश में स्‍वाभिमान ट्रस्‍ट के जरिए स्‍वाभिमान रैली कर जनता को जागरूक करना चाहते हैं। इसका दूसरा पहलू लोकतंत्र में राजनीति का राज है। बाबा रामदेव और ज़ी छत्‍तीसगढ़ साथ मिलकर जनता को जागरूक करने के साथ-साथ अप्रत्‍यक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी को ही सपोर्ट कर रहे हैं जिससे लालकृष्‍ण आडवानी प्रधानमंत्री बनेंगे। आडवानी के प्रधानमंत्री पद से जी न्‍यूज छततीसगढ़ और बाबा रामदेव का स्‍वार्थ तो पता नही चलता लेकिन इतना जरूर है कि आचार संहिता के बावजूद अगर बाबा रामदेव मतदान के पहले और मतदान तक अपने कार्यकर्ताओं को प्रेरित करेंगे कि मतदान हो , मतदान होना या ना होना राजनीति के साथ राष्‍ट्रीय मुदृा भी है लेकिन भाजपा के घोषणापत्र और गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेन्‍द्र मोदी के बयान की स्विस बैंकों से पैसा वापस लाया जाए। ज़रूर राजनीतिकरण है जिसका साथ देने के लिए उत्‍सुक नज़र आ रहे हैं बाबारामदेव जी।

विपक्ष के नेता रहे लालकृष्‍ण आडवानी भले ही 5 साल विपक्ष की भूमिका में रहे हैं, लेकिन एक विपक्षी जैसा प्रहार किया की नहीं ये भी एक स्‍वार्थ हो सकता है। स्विस बैंक में 71 हज़ार लाख करोड़ रूपए कतिथ रूप से काले धन के रूप में जमा है। ये काला धन राजनीतिक मुदृा बन गया है भाजपा से किस टीवी चैनल से स्‍वार्थ और किस महात्‍मा को फायदा होना है। इसका तो पता नहीं, लेकिन चुनाव आयोग को ज़रूर ऐसे आयोजन और चैनलों के प्रसारण पर रोक लगा देनी चाहिए। जो कि चुनाव के दौरान निष्‍पक्ष होने के बजाय राजनीतिक पार्टी के पक्ष में प्रचार करे।
स्‍वयं बाबा रामदेव कहते हैं कि राजनीतिक दलों को स्‍पष्‍ट चुनौती है। जो भी पार्टी विदेशों से काले धन को लाने में सहमत होगा। उस पार्टी के लिए वे प्रचार करने को तैयार हैं। स्‍वामी जी ने एकाएक पलटकर यहां तक कह दिया कि ये मुदृा भारतीय जनता पार्टी का नहीं, बल्कि भारतीय जनता का है। तो फिर पार्टी का क्‍या है।
इतना सुनने के बाद तो चुनाव आयोग को समझ ही जाना चाहिए कि स्‍वामी जी पार्टी का समर्थन करने के लिए तैयार हैं या तैयार होकर आ चुके हैं। अब चुनाव जनता ही करे, कि जब राजनेता, पत्रकार और योगगुरू, किसी पार्टी विशेष के लिए एक ही सुर में बोले, तो ये लोकतंत्र होगा या राजतंत्र।

1 comment:

Ravi Singh said...

क्यों भाई, अगर देशद्रोहियों और चोरों ने रकम बाहर के बैंक में छिपा कर रखी है, यदि जर्मन सरकार पिछले साल से नाम देने की पेशकश कर रही है और सत्ता में बैठी यूपीए सरकार और बाहर से समर्थन में तालियां बजाते कम्युनिष्ट नाम मांगने के बजाय बगलें झांकते रहे हैं तो किसकी गलती है?

क्या ये मुद्दा आम जनता का नहीं है? क्या इन टैक्स चोरों वतन फरोशों की बात न उठाना देशभक्ति है?

पत्रकारिता के छात्र हो, एसी एम्बेडेड पत्रकारिता तो सिर्फ सेकूलरिये वतन फरोश पत्रकार ही करते हैं.

वैसे अपने परिचय में सही लिखा है कि अभी तक भटक रहे हो, वाकई भटक रहे हो, बल्कि पेड़ की डाल पर अटक गये हो!कर सोचो