Friday, September 26, 2008

एक सच्चाई ये भी है छत्तीसगढ़ की ?


नक्सलियों के नाम पर बस्तर के मूल निवासियों के साथ छलावा किया जा रहा है। कभी नक्सली होने के साजिश के साथ तो कभी नक्सली सहयोगी होने के नाम पर आदिवासीयों की हत्या की जा रही है। जब इससे भी बात ना बने तो सलवा जुडूम के विरोधी होने का पर्चा लगाकर हत्याएं की जा रही है। छत्तीसगढ़ के मूल आदीवासीयों के लिए अब तों मुसीबत यहां तक बन चुकी हैं। कि सलवा जुडूम के नाम पर राजनीति की जा रही है, जून 2005 से सलवा जुडूम अभियान की शुरूआत आदिवासीयों के लिए किसी श्राप से कम नही। इस अभियान की शुरूआत से ही जाने गई ,जिससे डर कर आदिवासी अपना बसेरा सलवा जुडूम कैंप मे रहने लगे है जान गंवाने मे सभी जिलों से आगे है आदिवासी,,,,

नक्सलीयों का विकास कहे या छत्तीसगढ़ का ? ये तो कह नही सकते , मगर इतना जरूर कह सकते है कि आदिवासी अपने तीर-धनुष से यह लडाई जिसे शहरवासी नक्सली प्रकोप कहते है नही जीत पाएंगे। और ना ही कभी सेना के जवान और बटालियन जंगल मे घुसने की जरूरत करते है। यह सच्चाई अब पूरे प्रदेशवासियों को पता चल चुका है। कि किस प्रकार भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए किराए पर लिए हेलिकाप्टर का कोई सबूत ही नही मिल पाया है जो 3 अगस्त को आंध्रपदेश से छत्तीसगढ़ राजनाथ सिंह के लिए लाया जा रहा था। जब छत्तीसगढ़ मे लंबे चौडे आसमान के उंचाई से दिखने वाले हेलिकाप्टर का पता नही चला तो हम कैसे कह सकते है कि साढे 5 फ़ुट के आदिवासीयों की रक्षा कैंप के बहाने की जा सकती हैं।नाममात्र के बचाव से बचने के लिए छत्तीसगढ़ प्रदेश में चौकसी बढाई के नाम पर ठगी हो रही है टेलीविजन का भी भरपूर साथ मिल रहा है। प्रदेश के भावी पत्रकार नाममात्र की पत्रकारीता के साथ प्रेस विज्ञप्ति के आधार पर पत्रकारीता करते है। उन्हे पत्रकारीता के बजाय डी.जी.पी., गृहमंत्री, और मुख्यमंत्री के साथ चाय कॉफी पीने मे ज्यादा मजा आता है।

प्रदेश मे आदिवासीयों की पीड़ा को समझने वाले की कोई कमी नही हैं। और ना ही एन.जी.ओ. की,। इन सब सुविधाओं के होने के बावजूद भी नक्सली दर्द और आदिवासी दर्द के वकालत करने मे बढ़ोत्तरी हुई है। स्थानीय नेता के सलवा जुडूम की आगाज के बाद आदिवासीयों को मिलने वाली सुविधा मे कैंप और सरेराह मौत भी मिली है। अब ना तो आदिवासी अपने घर जा सकते हैं। और ना ही पशु जैसे कैंप के चार दिवारी में रह सकते है। स्थानीय जनजातियो के लिए हत्या और आत्महत्या के बीच की नौबत आ चुकी है।

Thursday, September 25, 2008

छत्तीसगढ़ में परिसीमन के बहाने भाजपा सरकार

हाथ में त्रिशूल ,दिल में बदले का भाव , गुस्से के रूप में हिन्दुत्व के दुश्मनों का खात्मा करना और लक्ष्य भारत में हिंदूओं की रक्षा करना । यह कोई चुनावी मुध्दा नही और ना ही किसी राजनीतिक पार्टी का घोषण्ाा पत्र पढ़ा जा रहा है। ये हिंदूत्व की रक्षा के लिए बनाएं गाएं बजरंग दल की तारीफ है जिसे बंद करने की योजनाएं बनाई जा रही है बजरंग दल की पार्टी एक धर्म विशेष की पार्टी है जो भागवान की आस्था के साथ लोगों को अपनी पार्टी में जोडते है। इसका एक बडा फायदा भारतीय जनता पार्टी को भी जाता है जो की हिंदूत्व के मुध्दे पर चनाव लड़ते है

ये हिदूत्व की रक्षा के लिए बनाएं गाए पार्टी है इस प्रकार हर धर्म के लिए ठेकेदार नैतात है जो अपनी धर्म की रक्षा के लिए दूसरो पर आत्याचार करते है? गलती कोई भी करे धार्मिक स्थलों को ही निशाना बनाया जाता है चाहे वह हिंदूओ के अक्षरधाम मंदिर की हो या कनार्टक के चर्च मे हुई तोड़फोड ?या फिर दिल्ली में हुए बम धमाके मे सिमी जैसे मुस्लिम संगठन का हाथ ? इसमें कितने हिंदूओ की मौत होती है या कितने मुस्लिम ,ईसाई ,सिख मारे जाते है यह कोई नही देखता ? धार्मिक स्थलो को नुकसान पहूंचाना पहली प्राथमिकता होती है। इन सबके बढ़ने के पीछें लोकतांत्रिक देश मे राजनीतिक पार्टी को ही दोष दिया जा सकता है। और यही सच्चाई है ,धर्म से राजनीति का गहरा ताल्लुक रहा है और इसी ताल्लुकाना रिश्तें का गलत अपयोग होते रहता है हिंदूत्व के नाम पर राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी के एकाएक शुर बदल जाते है और मुस्लिम वोट बैंक जिसकी आबादी मात्र 2 प्रतिशत है उसको रिझाने के लिए अब्दुल कलाम जैसे मुस्लिम राष्ट्रपति का हवाला दिया जाता है वही गुजरात जैसे प्रदेश में भाजपा मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हिंदुत्व के मुध्दे पर चुनाव लडती है और अन्य धर्म के लोगों को देशद्रोही और आतंकवादी कहने से नही चुकते अब मोदी जी ही बताएं की किस धर्म विशेष के लोग आतंकवादी बनती है?
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव होने वाले है और छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है यहां भी अनेक भाजपा के संघटन है जो जातिगत मुध्दे पर चुनाव लड़ती है और परिसीमन से समीकरण बिगड़ चुका है ऐसे समय मे लंबे समय तक मुध्दे बदलने वाली भाजपा एक नये मुध्दे के साथ फिर धोखे में रख सकती है मेरा व्यक्तिगत मुध्दा कुछ नही मगर आधे-अधूरे योजनाओं के बाद चुनाव की योजनाएं बनाना ,साथ ही पांच साल के कार्यकाल के बाद योजना अधूरा होना एक बड़ा मुध्दा है जो राजनीतिक पार्टीयां नहीं उठा सकती ,इसके लिए आम जनता को जागरूक होना पडेगा इसके लिए पत्रकारो को ईमानदार होना पडेग़ा लोकतांत्रिक देश मे लोकतंत्र को मजबूत बनाना पडेगा ?

Wednesday, September 24, 2008

छत्‍तीसगढ़ के क्षेत्रीय पार्टी में बढ़ता क्षेत्रवाद


छत्‍तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीटो के लिए अधिकांश पार्टी ने प्रत्‍या‍शियों के नाम की घोषणा कर दी है। दूसरी बार हो रहे छत्‍तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव की तैयारियां को लेकर पार्टियों में काफी उत्‍साह है। पर सोचने वाली बात ये है कि महाराष्‍ट्र नवनिर्माण पार्टी के प्रमुख राज ठाकरे के बढ़ते क्षेत्रवाद के विचारधारा का असर भी छत्‍तीसगढ़ के पार्टियों में देखने को मिल रही है। हाल ही में कई पार्टियों का गठन हो चुका है। और कुछ राजनेता नई पार्टियां गठन करने की योजना बना रही है। जो छत्‍तीसगढि़या सबले बढि़या वाले मानवतावादी नारा उपयोग करने के बजाय जो छत्‍तीसगढ़ की बात करेगा वो छत्‍तीसगढ़ में राज करेगा, जैसे उत्‍तेजनात्‍मक नारों का का प्रयोग कर रहे हैं। जिससे 'छत्‍तीसगढ़ में राज करेगा' जैसे शब्‍द राज ठाकरे की बिहारियों के प्रति आक्रोश को प्रदर्शित कर रही है। आए दिन राजधानी रायपुर में छत्‍तीसगढ़ी हित में बात करने वाले रा‍जनीतिक पार्टियां प्रेस कांफ्रेंस लेने लगे हैं जो यह कहते हैं कि जब तमिलनाडु में तमिल, बंगाल में बंगाली, गुजरात में गुजराती, पंजाब में पंजाबी, उड़ीसा में उडि़या राज करते हैं तो सामान्‍य न्‍याय के मुताबिक छत्‍तीसगढ़ में छत्‍तीसगढि़या राज होना चाहिए। ये राजनीति मुद्दा कोई नया नहीं है। नंद कुमार साय (भूतपूर्व नेताप्रतिपक्ष) ने भी इससे पहले छत्‍तीसगढि़या की जगह आदिवासी मुख्‍यमंत्री बनाने की मांग उठाई थी। हाल ही में छत्‍तीसगढ़ विकास पार्टी छत्‍तीसगढिया मुख्‍यमंत्री बनाने की घोषणा और 1750 रूपया वोटर पेंशन देने की बात कह चुके हैं। छत्‍तीसगढ़ प्रदेश में जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर और सर्वजनों के हित में घोषणा करने वाली झूठी पार्टियां अपना चेहरा छुपा रही है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रतिनिधि आम चुनाव से ही चुना जाता है। जो भारत देश के लिए गौरव की बात है परंतु जातिगत क्षेत्रवाद का मुद्दा किसी राज्‍य की जनता के लिए फायदेमंद हो सकता है। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में ये मुद्दा राष्‍ट्र के विकास में ज़रूर बाधा उत्‍पन्‍न कर सकती है।

Monday, September 22, 2008

मुख्यमंत्री चखना सेंटर 5 रू. मा

छत्तीसगढ़ ला राज्य बने 8 साल हो गे हे। अउ रमन सरकार ला घलौ पांच साल होवत आए हे। अब 5 ह बड़े हे त 3 साल के जोगी सरकार ल भुलाए के 5 साल वाला रमन सरकार के बात ल करबो। छत्तीसगढ़िया मन बर रमन सरकार ह अब्बड़अकन खुशहाली लाइस हवै, अउ ओकर कहात ले गांव गरीब अउ किसान लागे हे। हमरा डोकरा मन बोलथे कि सब्बो-सब्बो नेवता ठलाहा मन बर अउ लबरहा मन बर रमन जी ह देथे। हमर बर तो सोचबे नइ करे। डोकरा मेर पूछे ल बताथे कि 5 रू. मा जेन अन्नपूर्णा दाल भात योजना रखे हे ओ काबर नइ चलिस।

सियान के बात मा सोचेओं अउ परन दिन के जुन्ना पेपर ल पढ़ेंव त ओमा छत्तीसगढ़िया मन के आत्महत्या, हत्या, चोरी, लूट अउ अब्बड़अकन ख़बर रहिसे। जो ओमा एक ठन खबर छत्तीसगढ़ ब्रेवरेजस कार्पोरेशन के अध्यक्ष सच्चिदानंद उपासने के रहिसे। जेमा ओखर गोठ ल सुनेव त लगिस कि अतका पैसा दारू पिएबर कहाँ ले आइस। अध्यक्ष के गोठ हेवै कि छत्तीसगढ़ ह दारू पिए म तीसरा पारी म हावै। अउ अइसने चलही त पारी ह बढ़ सकत हे। अगर दारू पिए म तीसरा नंबर आए त दारू पिके खवइया मन ह का खाए होही। अभी पियइय्या मन देखबे त पिए के बाद खाना नइ खाए। त फेर दारू ह पेट म रेहे रिथे। अउ कई झन त मर घलौ जाथे। दारू पिए के बाद कतकौ झन मर घलौ गे।

सियान मन के गोठ घलौ सही हे। अब्बड़ दारू पिए ल आदमी मर जाथे। त हमार सरकार ऊपर दाग नइ आना चाहि। तेखर बर सियान मन सोचे हे कि रमन सिंह कना जाबौ। अउ 5 रूपया म चखना दारू के साथ देके माल ल उठाबौ। एखर से फायदा ये हवै कि दाल-भात सेंटर के जगह म दारू पिही अउ चखना खाही। दारू पिए म तीसरा पारी त हावै। दारू पिके जिइय्या मन के पारी घलौ बढ़ जाहि। एखर बर छत्तीसगढ़ सरकार ला चखना सेंटर खुलवाना ज़रूरी हवै। दारू पिए के बाद चखना खाही, अउ ओलंपिक जाके गोल्ड मेडल लाहि।
त फेर अगला सरकार ह 5 रू. मा चखना सेंटर ज़रूर खुलवाही। यही छत्तीसगढ़ के बड़ई हरे अउ नवां-नवां योजना सरकार के लाबौ। त फेर छत्तीसगढ़ म बने सरकार लाबौ। त सबो पियइय्या मन ला वोट डाले के नेवता आहे। जब चुनाव आहि चखना सेंटर खुलवइय्या मन ला वोट देहू। जय छत्तीसगढ़

आस्था के साथ खिलवाड़ में श्रध्दालु कौन ?


10 दिनों तक राजधानी में गणेश उत्सव की धूम रही। भव्य पंडाल के साथ प्रतिमाएँ लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनी रही। जिससें दुरूस्त अंचलों के लोग भी गणेश उत्सव का आनंद उठाने मेंे पीछे नहीं रहे। इसके साथ ही पितृपक्ष के पहले विसर्जन का दौर शुरू हो गया विसर्जन झाँकी की परंपरा की शुरूआत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने विभिन्न संप्रदाय के लोगों का संगठन बनाने और अंग्रेजों के खिलाफ षडयंत्र रचने के लिए की। तिलक जी का उद्देश्य समाज में फैले अराजकता के साथ-साथ समाज को नैतिक रूप से शिक्षित करना था। परंतु बदलते दौर के साथ-साथ गणेश उत्सव का स्वरूप ही बदल गया। और विसर्जन करने की परंपरा भी।

अब गणेश उत्सव के शुरू होते ही विसर्जन की तैयारियाँ शुरू होने लगती है। गणेश प्रतिमाओं का विचित्र स्वरूप अनेकों पण्डालों पर देखने को मिलती है। कुछ लोग गणेश प्र्रतिमाओं को श्रध्दा की नज़र से न देखकर दोस्त, यार, मित्र और न जाने किस-किस नज़र से ये उत्सव मनाते हैं। प्रथम देव देवताओं के रूप में पूजे जाने वाले श्री गणेश को इस कलयुगी संसार में खिलौने जैसा रूप दे दिया है। जो व्यक्ति की इच्छा के अनुसार रूप बदलती है और लोगों की भीड़ जुटाने के लिए अपनी मर्यादाओं को भी लांघ देते हैं। बची-खुची कसर अंतिम दिन विसर्जन के समय देखने को मिलती है। जब विसर्जन के समय फिल्मी गानों पर लचकते हुए बदन को देखकर लड़के-लड़कियाँ अपने त्यौहार को मस्ती का रूप दे देती है। प्रतिमाओं का खंडन होना या किसी की आस्था के साथ खेलना भविष्य में गणेश उत्सव को एक नए रूप में रख रही है।

तिलक जी का गणेश उत्सव और राजधानी के गणेश उत्सव में काफी अंतर आ चुका है। तिलकजी का उद्देश्य समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चलाना था। वहीं राजधानी के गणेश उत्सव समिति के सदस्य सभी सीमाओं को लांघकर सुनियोजित ढंग से उत्सव की तैयारियां कर रहे हैं। राजधानी में प्रतिवर्ष पितृपक्ष में ही झाँकी विसर्जित की जाती है। इसका एक बड़ा कारण ये भी है कि आसपास के सभी ज़िलों की झाँकियां राजधानीवासियों के लिए लाई जाती है। मगर किसी कारण के लिए अपनी आस्था एवं परंपरा के साथ खिलवाड़ करना गणेश उत्सव को शोभा नहीं देती। राजधानी वासियों में गणेश उत्सव को लेकर कितनी श्रध्दा है ये गणेश प्रतिमाओं को बेरहमी से नगर प्रशासन की सहायता से विसर्जित करते समय देखा जा सकता है।

जिस समाज को संगठित करने के लिए तिलकजी ने प्रयास किए वही समाज उनकी परंपराओं को तोड़ रहा है।अंतिम दिन कचरे साफ करने वाली गाड़ी को विसर्जन के लिए लगाएं गाएं है। जिससे कि महानदी के बहाव में बाधा ना पहुंचे। प्रशासन से लेकर आम दर्शक अपनी आस्था की परवाह किएं बिना इस उत्सव को भव्य रूप देना चाहता है
परंतु क्या वास्तव में किसी की आस्था के साथ खिलवाड़ करके श्रध्दालू होने का दुस्साहस बहादुरी नहीं है? पितृपक्ष में किसी अत्सव का मनाना और गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन करना क्या कहें.....................................................

Wednesday, September 10, 2008

धर्म क्या है पहले पहचानिएं फिर धर्मांतरण की बात करिए ?



दो घटनाओ ने मेरा ध्यान किसी सम्प्रदाय के विरोध में लिखने को मजबूर कर दिया, पहली घटना सरायपाली के ग्राम खोखेपुर में दलित उत्पीडन की है जिसमे वहा के 20 प्रतिशत दलितों को प्रताडित कर मारपीट किया गया और घर के अंदर बंद कर जलाने का प्रयास किया गया यह बात सिर्फ एक गांव की ही नही छत्तीसगढ के अनेको गांव में इस प्रकार की घटना होती रहती है मगर कोई संस्था खुलकर बोलने की हिम्मत नही करता जब तक उसे कोई फायदा न हो, सरायपाली की इस घटना ने दलितों को डर-डर के जीने को मजबूर कर दिया है और इस गांव मे भेदभाव छुआछुत होने से दलितों का जीना मुश्किल हो गया है

दूसरी घटना रायपूर होलीक्रास स्कूल की है जिसमे धर्म के ठेकेदारों ने स्कूल की शिक्षा व्यवस्था के बजाय छात्रों की बाइक पर लगे स्टीकर पर विरोध जताया है इन धर्म के ठेकेदारों का आरोप है कि मिशनरी स्कूल छात्रो को स्टीकर के बहाने धर्मांतरण के लिए प्रेरित कर रही है जिससे हिंदू धर्म को खतरा है ये रायपुर राजधानी मे पहली बार नही हुआ ब्लकि इसाइयों पर लगातार धर्मांतरण का आरोप लगता आया है और किसी न किसी प्रकार से इसाइयों को मानसिक रूप से प्रताडित किया जाता है।

मेरा ज्ञान कम जरूर हो सकता है परंतू मैने अपने स्कूल मे वसूधैव
कुटूम्बकम, अनेकता मे एकता और हिंदू मूस्लिम सिख इसाई हम सब भाई-भाई जैसे अध्याय का अध्ययन किया और जब फिर दलितों के मसीहा और हिंदू धर्म को कलंक कहने वाले तथा बडी संखया में धर्मांतरण करने वाले बाबा साहेब के जीवनकाल की घटना का अध्ययन किया तो धर्मांतरण करने की मजबूरी (प्रेरणा) धर्म एवं समाज मे फैली इसी छूआछूत की भावना से मिलती है।
अपने आप को हिंदू कहना और ब्राम्हणवाद के मनुवादी शास्त्रों के लिए दलितों को प्रताडित करना इसी हिंदूस्तान की रीत है जो शूद्रों को हिंदू होने का दर्जा ही नहीं धर्मांतरण विरोधी होने का दर्जा भी दिलाती है भारत को हिंदूस्तान कहने वालें आज भी कोई कसर नहीं छोडते और न ही भेदभाव-छूआछूत को बढावा देने से कतराते है और तब दलितों के पक्ष मे कोई धर्म के ठेकेदारो ध्दारा कार्यवाही नही की जाती इन ठेकेदारों को अपने धर्म के बजाय इसाई मिशनरीयों का धर्मांतरण प्रचार चुभता है गांव शहर मे इस प्रकार की घटना आम है मेरे कलम घिसाने में भी मेरी हिंदूवादी सभ्यता आडे आती है कही धर्म के ठेकेदार यहां भी न हो और मेरे हिंदू होने पर सवालिया निशान उठाएं इसलिए मेरी मजबूरी आधे मे ही दम तोंड रही है अगर मेरे नये सहयोगियो का साथ मिला तो आगे ज्यादा और पूरी कलम घिसूंगा