Monday, September 22, 2008

आस्था के साथ खिलवाड़ में श्रध्दालु कौन ?


10 दिनों तक राजधानी में गणेश उत्सव की धूम रही। भव्य पंडाल के साथ प्रतिमाएँ लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनी रही। जिससें दुरूस्त अंचलों के लोग भी गणेश उत्सव का आनंद उठाने मेंे पीछे नहीं रहे। इसके साथ ही पितृपक्ष के पहले विसर्जन का दौर शुरू हो गया विसर्जन झाँकी की परंपरा की शुरूआत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने विभिन्न संप्रदाय के लोगों का संगठन बनाने और अंग्रेजों के खिलाफ षडयंत्र रचने के लिए की। तिलक जी का उद्देश्य समाज में फैले अराजकता के साथ-साथ समाज को नैतिक रूप से शिक्षित करना था। परंतु बदलते दौर के साथ-साथ गणेश उत्सव का स्वरूप ही बदल गया। और विसर्जन करने की परंपरा भी।

अब गणेश उत्सव के शुरू होते ही विसर्जन की तैयारियाँ शुरू होने लगती है। गणेश प्रतिमाओं का विचित्र स्वरूप अनेकों पण्डालों पर देखने को मिलती है। कुछ लोग गणेश प्र्रतिमाओं को श्रध्दा की नज़र से न देखकर दोस्त, यार, मित्र और न जाने किस-किस नज़र से ये उत्सव मनाते हैं। प्रथम देव देवताओं के रूप में पूजे जाने वाले श्री गणेश को इस कलयुगी संसार में खिलौने जैसा रूप दे दिया है। जो व्यक्ति की इच्छा के अनुसार रूप बदलती है और लोगों की भीड़ जुटाने के लिए अपनी मर्यादाओं को भी लांघ देते हैं। बची-खुची कसर अंतिम दिन विसर्जन के समय देखने को मिलती है। जब विसर्जन के समय फिल्मी गानों पर लचकते हुए बदन को देखकर लड़के-लड़कियाँ अपने त्यौहार को मस्ती का रूप दे देती है। प्रतिमाओं का खंडन होना या किसी की आस्था के साथ खेलना भविष्य में गणेश उत्सव को एक नए रूप में रख रही है।

तिलक जी का गणेश उत्सव और राजधानी के गणेश उत्सव में काफी अंतर आ चुका है। तिलकजी का उद्देश्य समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चलाना था। वहीं राजधानी के गणेश उत्सव समिति के सदस्य सभी सीमाओं को लांघकर सुनियोजित ढंग से उत्सव की तैयारियां कर रहे हैं। राजधानी में प्रतिवर्ष पितृपक्ष में ही झाँकी विसर्जित की जाती है। इसका एक बड़ा कारण ये भी है कि आसपास के सभी ज़िलों की झाँकियां राजधानीवासियों के लिए लाई जाती है। मगर किसी कारण के लिए अपनी आस्था एवं परंपरा के साथ खिलवाड़ करना गणेश उत्सव को शोभा नहीं देती। राजधानी वासियों में गणेश उत्सव को लेकर कितनी श्रध्दा है ये गणेश प्रतिमाओं को बेरहमी से नगर प्रशासन की सहायता से विसर्जित करते समय देखा जा सकता है।

जिस समाज को संगठित करने के लिए तिलकजी ने प्रयास किए वही समाज उनकी परंपराओं को तोड़ रहा है।अंतिम दिन कचरे साफ करने वाली गाड़ी को विसर्जन के लिए लगाएं गाएं है। जिससे कि महानदी के बहाव में बाधा ना पहुंचे। प्रशासन से लेकर आम दर्शक अपनी आस्था की परवाह किएं बिना इस उत्सव को भव्य रूप देना चाहता है
परंतु क्या वास्तव में किसी की आस्था के साथ खिलवाड़ करके श्रध्दालू होने का दुस्साहस बहादुरी नहीं है? पितृपक्ष में किसी अत्सव का मनाना और गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन करना क्या कहें.....................................................

1 comment:

Anil Pusadkar said...

अच्छा लिखा आपने