स्टार टीवी पर हाल ही में प्रसारित किए जा रहे रिएलिटी शो सच का सामना नेताओं के लिए मुसीबत बनी हुई है उन्हे लगने लगा है कि जनता कही उन्हे ही इस सच पकडने वाली मशीन पर बिठाने का तो मन नही बना रही है पिछले साठ सालों की राजनीति में सरकार और राजनेता जिस सच और न्याय के लिए वोट मागते आए है , वही उन्हे सच वाले कार्यक्रम पर आपत्ति होने लगी है इस बार का बहाना है रियालिटी शो मे सच के नाम पर अश्लीलता परोसे जाने का आरोप,
कभी सोचा ही नही जा सकता कि सच्चई लोगो को खासकर राजनेताओं को चुभने लगी है भारत देश मे जहां बहुत से देवी देवताओं के मंदिरो् में कामसुत्र और ना जाने कैसे कैसे आसन जिसका जिक्र ना तो पुस्तको मे है और ना ही वेदो में कुछ आसन जरूर समझ में आते है लेकिन इन आसनो का उदेश्य और हिन्दु रितीरिवाजो के इस मंदिर में अश्लीलत क्यो फैला रहे है कौन है इस धर्म के ठेकेदार और क्यू हिन्दू धर्म को अश्लीलता के दायरे में खडा कर रहे है
ये सवाल उन राजनेताओं के लिए है जो सांसद में फालतू के प्रश्नों को उठाते है जबकि छ;ग; मे नक्सलवाद समस्या सहित पूरे देश में मंहगाई इस कदर बड चुकी है कि लोग अपने लिए भोजन की व्यवस्था नही कर पा रहे है और इन राजनेताओं को भारत की संस्क़ति और समाज के लिए क्या देखना चाहिए और क्या नही देखना चाहिए इसकी चिंताएं ज्यादा सताने लगी है जो सच जैसे कार्यक्रम को प्रसारित करने को लेकर सेंसरशिप लगाने की बात कह रहे है , सच कडवा होता है सुना और देखा भी था लेकिन सत्यमेव जयते कि शुरूआत संसद के हंगामे और अश्लीलता के उदाहरणों के साथ हो रही है
Wednesday, July 22, 2009
Monday, July 20, 2009
ऐसी पत्रकारिता को सभी सलाम करते है
मीडया एक बडा व्यापार बना हुआ है मिडिया आवाज उठाने नही बेईमानो के पैसे दो गुणे करने मे व्यस्त है बहुत कम लोगो को इस बात की जानकारी है कि पत्रकार की औकात सिर्फ जी हुजूरी से बढकर कुछ भी नही,एक पत्रकार लंच बाक्स रख्ाने की औकात भी नही रखता प्रेस क्लब मे मिलने वाले नाश्ते से और दोपहर के किसी होटल मे प्रेस से मिलिए के बहाने दिन भर व्यस्त रहता है कुछेक प्रमुख चैनलों की छोडे तो सभी टीवी स्ट्रिंगर अपनी स्टोरी के साथ समझौता करते है क्यों कि महिने के मात्र बारह तेरह हजार उसमें भी पेट्रोल और मोबाईल के खर्चे का कोई हिसाब नही होता कुल मिलाकर महिने ख्ात्म होते और शुरू होते पांच हजार बचते है, ऐसे संवाददाता दुसरो को न्याय दिलाने के लिए जी तोड मेहनत भी करते है मगर अपनी जरूरतों के आगे सब कुछ छोडकर मुकदर्शक बन जाते है
ऐसे कथित रूप से पत्रकार कभी अपनी जरूरतों को पूरा ही नही कर सकते इनकी
मजबुरीयां इस हद तक बन चुकी है कि अपनी इंकम तक की मांग करने से कतराते है दुसरे मीडिया संस्थान में नौकरी तक के लिए तरस जाते है बतौर मार्केटिंग के किसी संवाददाता को महत्तव भी नही दिया जाता, कुछ करने और ना करने की जिद से पत्रकार दलाल से कम नही हो जाता , नंगी आंखो से देख्ाने पर पता चलता है कि मीडिया संस्थान राजनीतिक पार्टियों के हस्तक्षेप से चलाए जाते है जिसका सीधा वास्ता वोट बैंक से जुडकर सामने आता है मीडिया कुल मिलाकर लोगों को गुमराह करने का कार्य कर रही है इसका सबसे बडा उदाहरण है मीडिया के आय के स्त्रोत के रूप में सिर्फ विज्ञापन पर निर्भर होना , और विज्ञापन उत्पाद के प्रचार से मिलते है और कुछ स्पेशल स्टोरी के स्पेशल पैकेज चलाने के ,,,
लोगो मे यह गलत धारणा बन चुकी है कि मीडिया एक बहुत बडी ताकत है और इसे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ तक की संज्ञा देने से नही चुकते , मुझे यह समझ नही आया कि जब लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ में घुन लग चुके है तो फिर चौथा स्तम्भ क्यों और कैसे बच सकता है भारत मे इले़ मीडिया का इतिहास और समाचार पत्रों के इतिहास में एक पीढी का अंतर है इस मीडिया के फेर मे लोग फसकर ग्लैमर के चक्कर मे मीडिया जैसे
क्षेत्र को चुन चुके है जिनमें मै भी एक हूॅ इससे अच्छा होता कि मै अपने गांव के किसी खेत मे हल चला रहा होता और ऐसी मीडिया के आगे सलाम तो नही करता जिसे सभी लोग एक सत्य मानकर सलाम करते है शायद और भी लोग बचे है जो पत्रकारिता को सलाम करते है,,,,,,,,,,,,
एक पत्रकार की तन्खवाह और लंच बाक्स सब बयां करती है
Monday, May 11, 2009
छ.ग. में उद्धेश्य और वादो के बीच जवानो की मौत
सलवा जुडूम और नक्सली मुठभेड ये दोनो बाते भारत के हर नागरिक जानते है खासकर छत्तीसगढ की पहचान ही नक्सली मुठभेड बन चुकी है सऩ 2005 से सलवा जुडूम की शुरूवात से आज तक पुमिस और नक्सलीयों म़तको की संखया 2005 से ज्यादा पहुंच चुकी है लगातार हो रहे हमले में कभी कुछ हासिल हुई हो तो वह है मौत
लगातार हमले से सरकार ने यहां तक कह दिया कि हम आर पार की लडाई लडेंगे मगर कैसे यह नही बताया नक्सलियों ने सोचा ही नही और आर पार की लडाई शुरू कर दी लगातार एक के बाद एक हमले रोज हो रहे है भला हमले से किसे क्या मिल गया और इसका अंत कितने सालों में होगा ये ना तो मंत्री जी जानते है और ना ही नक्सलियों को मालूम
सलवा जुडूम की स्थापना से लेकर आज तक का समय देख लिया लेकिन छत्तीसगढ के ही निवासियों को समझ नही आया कि नक्सलियों की मांग क्या है उद्देश्य क्या है, मंत्रीजी भी योजनाएं बनाने और योजनाओं की प्राथमिकताओं को पूरा करने का दम भरते है अगर आदिवासी क्षेत्र में योजनाएं पूरी हुई तो हत्याएं क्यों , और नही हुई तो सरकार क्या कर रही है , छ.ग. सरकार इस बार नक्सलियों को ललकार चुकी है आर पार की लडाई लडने की बात कहकर पीछे भी हट गई इसमे सरकार को अगर कहे कि वह अपने उद्धेश्य से भटक चुकी है और नक्सलियों को पहले मारने के लिए उकसा रही है तो कोई गलत नही है,,,
मुझे अपने दोस्तो से मिलने के लिए उनकी मौत का इंतजार करना पडता है मै तो पुलिस नही बन पाया लेकिन पुलिस भर्ती में बहुत सारे दोस्त बने थे जो धीरे धीरे दूर होते जा रहे है मैने अभी तक साथ के तीन दोस्त खोएं है और एक दोस्त अभी भी नक्सलियों से लडाई करने में व्यस्त है लगता है उसकी मौत का इंतजार करना होगा मुझे, क्यो कि सरकार के फरमान से आगे तक नक्सली खत्म नही होंगेा रोज दर्जनो लाशे घर पहुंचाई जा रही है कोई तो अपना उद्धेश्य बताएं जिससे मेरे दोस्तो की मौत रूक सकें, उद्धेश्य और वादो के बीच जवानों की मौत का जिम्मेदार सिर्फ सरकार ही है यह फैसला सच हो सकता है ,,,,
लगातार हमले से सरकार ने यहां तक कह दिया कि हम आर पार की लडाई लडेंगे मगर कैसे यह नही बताया नक्सलियों ने सोचा ही नही और आर पार की लडाई शुरू कर दी लगातार एक के बाद एक हमले रोज हो रहे है भला हमले से किसे क्या मिल गया और इसका अंत कितने सालों में होगा ये ना तो मंत्री जी जानते है और ना ही नक्सलियों को मालूम
सलवा जुडूम की स्थापना से लेकर आज तक का समय देख लिया लेकिन छत्तीसगढ के ही निवासियों को समझ नही आया कि नक्सलियों की मांग क्या है उद्देश्य क्या है, मंत्रीजी भी योजनाएं बनाने और योजनाओं की प्राथमिकताओं को पूरा करने का दम भरते है अगर आदिवासी क्षेत्र में योजनाएं पूरी हुई तो हत्याएं क्यों , और नही हुई तो सरकार क्या कर रही है , छ.ग. सरकार इस बार नक्सलियों को ललकार चुकी है आर पार की लडाई लडने की बात कहकर पीछे भी हट गई इसमे सरकार को अगर कहे कि वह अपने उद्धेश्य से भटक चुकी है और नक्सलियों को पहले मारने के लिए उकसा रही है तो कोई गलत नही है,,,
मुझे अपने दोस्तो से मिलने के लिए उनकी मौत का इंतजार करना पडता है मै तो पुलिस नही बन पाया लेकिन पुलिस भर्ती में बहुत सारे दोस्त बने थे जो धीरे धीरे दूर होते जा रहे है मैने अभी तक साथ के तीन दोस्त खोएं है और एक दोस्त अभी भी नक्सलियों से लडाई करने में व्यस्त है लगता है उसकी मौत का इंतजार करना होगा मुझे, क्यो कि सरकार के फरमान से आगे तक नक्सली खत्म नही होंगेा रोज दर्जनो लाशे घर पहुंचाई जा रही है कोई तो अपना उद्धेश्य बताएं जिससे मेरे दोस्तो की मौत रूक सकें, उद्धेश्य और वादो के बीच जवानों की मौत का जिम्मेदार सिर्फ सरकार ही है यह फैसला सच हो सकता है ,,,,
Monday, April 13, 2009
छत्तीसगढ़ में मतदान तक होगा भाजपा का प्रचार इसमें सभी का होगा साथ।
योग से निरोग का रास्ता दिखाने वाले योगगुरू बाबा रामदेव देश में स्वाभिमान ट्रस्ट के जरिए स्वाभिमान रैली कर जनता को जागरूक करना चाहते हैं। इसका दूसरा पहलू लोकतंत्र में राजनीति का राज है। बाबा रामदेव और ज़ी छत्तीसगढ़ साथ मिलकर जनता को जागरूक करने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी को ही सपोर्ट कर रहे हैं। जिससे लालकृष्ण आडवानी प्रधानमंत्री बनेंगे। आडवानी के प्रधानमंत्री पद से जी न्यूज छततीसगढ़ और बाबा रामदेव का स्वार्थ तो पता नही चलता लेकिन इतना जरूर है कि आचार संहिता के बावजूद अगर बाबा रामदेव मतदान के पहले और मतदान तक अपने कार्यकर्ताओं को प्रेरित करेंगे कि मतदान हो , मतदान होना या ना होना राजनीति के साथ राष्ट्रीय मुदृा भी है लेकिन भाजपा के घोषणापत्र और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयान की स्विस बैंकों से पैसा वापस लाया जाए। ज़रूर राजनीतिकरण है जिसका साथ देने के लिए उत्सुक नज़र आ रहे हैं बाबारामदेव जी।
विपक्ष के नेता रहे लालकृष्ण आडवानी भले ही 5 साल विपक्ष की भूमिका में रहे हैं, लेकिन एक विपक्षी जैसा प्रहार किया की नहीं ये भी एक स्वार्थ हो सकता है। स्विस बैंक में 71 हज़ार लाख करोड़ रूपए कतिथ रूप से काले धन के रूप में जमा है। ये काला धन राजनीतिक मुदृा बन गया है भाजपा से किस टीवी चैनल से स्वार्थ और किस महात्मा को फायदा होना है। इसका तो पता नहीं, लेकिन चुनाव आयोग को ज़रूर ऐसे आयोजन और चैनलों के प्रसारण पर रोक लगा देनी चाहिए। जो कि चुनाव के दौरान निष्पक्ष होने के बजाय राजनीतिक पार्टी के पक्ष में प्रचार करे।
स्वयं बाबा रामदेव कहते हैं कि राजनीतिक दलों को स्पष्ट चुनौती है। जो भी पार्टी विदेशों से काले धन को लाने में सहमत होगा। उस पार्टी के लिए वे प्रचार करने को तैयार हैं। स्वामी जी ने एकाएक पलटकर यहां तक कह दिया कि ये मुदृा भारतीय जनता पार्टी का नहीं, बल्कि भारतीय जनता का है। तो फिर पार्टी का क्या है।
इतना सुनने के बाद तो चुनाव आयोग को समझ ही जाना चाहिए कि स्वामी जी पार्टी का समर्थन करने के लिए तैयार हैं या तैयार होकर आ चुके हैं। अब चुनाव जनता ही करे, कि जब राजनेता, पत्रकार और योगगुरू, किसी पार्टी विशेष के लिए एक ही सुर में बोले, तो ये लोकतंत्र होगा या राजतंत्र।
स्वयं बाबा रामदेव कहते हैं कि राजनीतिक दलों को स्पष्ट चुनौती है। जो भी पार्टी विदेशों से काले धन को लाने में सहमत होगा। उस पार्टी के लिए वे प्रचार करने को तैयार हैं। स्वामी जी ने एकाएक पलटकर यहां तक कह दिया कि ये मुदृा भारतीय जनता पार्टी का नहीं, बल्कि भारतीय जनता का है। तो फिर पार्टी का क्या है।
इतना सुनने के बाद तो चुनाव आयोग को समझ ही जाना चाहिए कि स्वामी जी पार्टी का समर्थन करने के लिए तैयार हैं या तैयार होकर आ चुके हैं। अब चुनाव जनता ही करे, कि जब राजनेता, पत्रकार और योगगुरू, किसी पार्टी विशेष के लिए एक ही सुर में बोले, तो ये लोकतंत्र होगा या राजतंत्र।
Friday, April 10, 2009
आदमी क्या है एक जोडी जूता है़
आदमी क्या है एक जोडी जूता है़
कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नही है
जूते मारने के सिलसिले की शुरूआत भी यही से होती है
चाहे वो राष्ट्रपति हो या गली का बच्चा, जूते की मार पड ही रही है
ये जूता आदमी के नाप का ही है
जिसे जूते नही पडे शायद उसे अपने जूते के नाप का अंदाजा नही है
जूता मार प्रतियोगिता की शुरूआत भले ही एक पत्रकार (मुंतजर अल जैदी्)ने की हो
लेकिन मेरे मोहल्ले मे छुटभैय्ये नेता हमेशा एक नारा लगाया करते थे
कि ------------------ के दलालो को जूते मारो सालों को
कही ये नारा समझने के साथ्ा अभ्यास मे तो नही हो रहा है
अब तो अच्छी क्वालिटी के जूते पहनने पडेंगे क्या पता कल,,,,,,,
मै तो नही मारूंगा लेकिन मेरे जूते से कोई मारे और टी वी वाले उस जूते को दिनभ्ार दिखाएंगे
और विज्ञापन वालो से कमाई भी होगी इसमे आपका क्या इरादा है
कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नही है
जूते मारने के सिलसिले की शुरूआत भी यही से होती है
चाहे वो राष्ट्रपति हो या गली का बच्चा, जूते की मार पड ही रही है
ये जूता आदमी के नाप का ही है
जिसे जूते नही पडे शायद उसे अपने जूते के नाप का अंदाजा नही है
जूता मार प्रतियोगिता की शुरूआत भले ही एक पत्रकार (मुंतजर अल जैदी्)ने की हो
लेकिन मेरे मोहल्ले मे छुटभैय्ये नेता हमेशा एक नारा लगाया करते थे
कि ------------------ के दलालो को जूते मारो सालों को
कही ये नारा समझने के साथ्ा अभ्यास मे तो नही हो रहा है
अब तो अच्छी क्वालिटी के जूते पहनने पडेंगे क्या पता कल,,,,,,,
मै तो नही मारूंगा लेकिन मेरे जूते से कोई मारे और टी वी वाले उस जूते को दिनभ्ार दिखाएंगे
और विज्ञापन वालो से कमाई भी होगी इसमे आपका क्या इरादा है
Tuesday, February 17, 2009
जांजगीर संसदीय क्षेत्र प्रदेश् मे नंबर वन पर है
लम्बे समय से आराक्षण् के आग मे सभी जल गए जिसमे प्रमुख् रहा राजनीति मे आरक्ष्ण् का ,1947 से आरक्ष्ति सीटो पर आरक्षित वर्गेां का कब्जा रहा लेकिन क्या आरक्षित वर्गों का भला हो पाया और क्या राजनेता आरक्षित वर्ग का भला करने मे सक्षम है लम्बे दौर से आरक्षण केवल नीची जाति वर्ग के लोगों के लिए ही है जो आज तक चले आ रही है। ये भारत मे वर्ग विशेष की दबाव नीति से निचे वर्ग खासकर अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति को आरक्षण है आजादी के बाद भी शिक्षा,राजनिती, व्यवसाय और कई स्थानों पर आरक्षण का मिलना एक अलग तरह के भेदभाव को जन्म देता है, खासकर ऐसा वर्ग जो आज तक अपनी उपस्थ्िति समाज मे सभ्य मानसिकता के तौर पर बना नही पाएं , लेकिन सोचने वाली बात ये है कि अपने आरक्षित क्षेत्र से राजनेता भी गएं और आरक्षण बना भी रहा पर भेदभाव खत्म क्यो खत्म नही हुआ। क्यो आख्रिर आरक्षण की जरूरत राजनेताओं को पड रही है
लोकसभा चुनाव और गर्मी महीना अपने उम्म्ीदवारों के चयन मे ही राजनीतिक पार्टियां सिमट कर रह जाएंगी सबसे पहले तो भेदभाव ही ये प्रत्याशी और प्रतिनिधि बनाते है। अगर बात करे छत्तीसगढ् प्रदेश् की तो हाल ही मे सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में रायपुर के ऐसे प्रत्याशी (नंदे साहू ) जो लम्बे से राजनीति में सक्रिय नही रहें, जितना कि विपक्षी पार्टी के प्रत्याशी (सत्यनारायण् शर्मा) सक्रिय रहे और प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कार्यकारी अध्यक्ष पद पर रहे । रायपुर राजधानी में भी साहूवाद जातिवाद हावी रहा है, जिसके कारण् नंदे साहू जीते और विधानसभा भी गए । साहू जी की जीत जातिगत समीकरण् और भेदभाव को बढावा देने की बात करे तों शायद कुछ गलत नही ।
अब फिर एक बार जातिगत समीकरनों की चर्चा है जो कि लोकसभा प्रत्याशी चयन के लिए आवश्यक मान ली गई है। छत्तीसगढ् मे 11 लोकसभा सीट के लिए मात्र जांजगीर संसदीय क्षेत्र ही अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित है जिसमें सर्वाधिक 42 उम्मीदवार की कतार है जो अपनी-अपनी दावेदारी पेश् कर रहे है अनुसूचित जाति वर्ग के प्रदेश भर के उम्मीदवार अपनी सीट पक्की मान रहे है लेकिन जातिगत समीकरण पर कोई प्रत्याशी बात करते ही नही । बडे-बडे दिग्गज नेता जो अनुसूचित जाति वर्ग के है वे सभी आरक्षित सीट से ही लडने की मंशा जता रहे है और अगर जीत भी गए तो ना ही संसदीय क्षेत्र का भला होगा और ना ही अनुसूचित जाति वर्गो का, कुछ महत्तवपूर्ण बिन्दुओ पर चर्चा करे तो- नकल प्रकरण मे जांजगीर संसदीय क्षेत्र प्रदेश् मे नंबर वन पर है ,, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति वर्ग के बावजूद रोजगार में पीछे है। ,, शिक्षा में यहां के निवासी बिलासपुर और रायपुर पर निर्भर है
जांजगीर संसदीय क्षेत्र के लिए 42 उम्मीदवार ,क्षेत्र का विकास और आरक्षित वगौ्ं की होड ,मतदाताओं के लिए सोचनीय विषय हो सकती है अगर मतदाता जागरूक हो तो
लोकसभा चुनाव और गर्मी महीना अपने उम्म्ीदवारों के चयन मे ही राजनीतिक पार्टियां सिमट कर रह जाएंगी सबसे पहले तो भेदभाव ही ये प्रत्याशी और प्रतिनिधि बनाते है। अगर बात करे छत्तीसगढ् प्रदेश् की तो हाल ही मे सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में रायपुर के ऐसे प्रत्याशी (नंदे साहू ) जो लम्बे से राजनीति में सक्रिय नही रहें, जितना कि विपक्षी पार्टी के प्रत्याशी (सत्यनारायण् शर्मा) सक्रिय रहे और प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कार्यकारी अध्यक्ष पद पर रहे । रायपुर राजधानी में भी साहूवाद जातिवाद हावी रहा है, जिसके कारण् नंदे साहू जीते और विधानसभा भी गए । साहू जी की जीत जातिगत समीकरण् और भेदभाव को बढावा देने की बात करे तों शायद कुछ गलत नही ।
अब फिर एक बार जातिगत समीकरनों की चर्चा है जो कि लोकसभा प्रत्याशी चयन के लिए आवश्यक मान ली गई है। छत्तीसगढ् मे 11 लोकसभा सीट के लिए मात्र जांजगीर संसदीय क्षेत्र ही अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित है जिसमें सर्वाधिक 42 उम्मीदवार की कतार है जो अपनी-अपनी दावेदारी पेश् कर रहे है अनुसूचित जाति वर्ग के प्रदेश भर के उम्मीदवार अपनी सीट पक्की मान रहे है लेकिन जातिगत समीकरण पर कोई प्रत्याशी बात करते ही नही । बडे-बडे दिग्गज नेता जो अनुसूचित जाति वर्ग के है वे सभी आरक्षित सीट से ही लडने की मंशा जता रहे है और अगर जीत भी गए तो ना ही संसदीय क्षेत्र का भला होगा और ना ही अनुसूचित जाति वर्गो का, कुछ महत्तवपूर्ण बिन्दुओ पर चर्चा करे तो- नकल प्रकरण मे जांजगीर संसदीय क्षेत्र प्रदेश् मे नंबर वन पर है ,, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति वर्ग के बावजूद रोजगार में पीछे है। ,, शिक्षा में यहां के निवासी बिलासपुर और रायपुर पर निर्भर है
जांजगीर संसदीय क्षेत्र के लिए 42 उम्मीदवार ,क्षेत्र का विकास और आरक्षित वगौ्ं की होड ,मतदाताओं के लिए सोचनीय विषय हो सकती है अगर मतदाता जागरूक हो तो
Tuesday, February 3, 2009
ऑस्कर के लिए अक्सर मे ना बदल जाएं
स्लमडॉग मिलेनियर जो भारत मे देर से रिलीज हुई अगर आस्कर तक नही पहूंचती तो शायद भारत मे भी रिलीज नही होती जो कि भारत देश मे मायानगरी मुंबई की सच्चाई पर बनी है मुंबई की गलियों से सच्चाई बयां करती ये फिलम सभी प्रदेशों की कहानी भी हो सकती है भीख मांगने से पहले की सच्चाई बयां करना से लेकर करोड्पति बनना और बाल विकास विभाग की ओर से तारीफ करना कि वास्तविक से रूबरू कराने वाली फिल्म को ऑस्कर मिलना चाहिए
ऑस्कर मिले या ना मिले लेकिन सामाजिक संस्था और सरकार के बचपन को लेकर ऐसे अनेक वादे हुए है तारे जमीं पर उतारे गए और एक नौजवान करोडपति भी बना फिर भी भारत देश की दशा नही सुध्ारी दिखीा दिशा सुधारने की बात ही छोडिएंा मधुर भंडारकर असलियत को पर्दे पर उतारने मे माहिर माने जाते है जो ट्रेफिक सिग्नल मे दिख भी, वही आमिर खान गिने चुने फिल्मों मे अपनी अदाकारी की छाप छोडते है ये सारे मशहूर हस्तियां जिसके सामने ये विषय कोई समस्या ना होकर पैसा बनाने की मशीन है फिर भी वास्तविक्ता यही है आज भी लोग भूखे नंगेऔर सडक पर सोने को मजबूर है शायद इनको ऑस्कर मिलता तो अमीरी गरीबी का भेदभाव कम होता लेकिन अक्सर ऐसा नही होगा मेरे देश मे गरीब गरीब ही रहे तो ठीक है आदिवासी छोटे कपडे पहने तो ठीक, कबिलों देहात गांवो में कोई महिला अर्दनग्न दिख्ो तो ठीक है क्यों कि पैसा बनाते है अगर गरीबी खत्म हो गई तो पैसा कमाने का नया आयडिया कहां से आएंगे
स्लमडॉग मिलेनियर को ऑस्कर एवार्ड मिलने या ना मिलने के पीछे एक बात जरूर सोचनीय है कि अगर ये एवार्ड एक ऐसी फिल्म को मिलती जिससे कि जाति, धर्म, छुआछुत रंगभेद सब मिट जाएं तो शायद हमारे महापुरूषों और अनगित देशवासियों पर भारतीय होने का गर्व सौगुणा और बढ जाएगां ,, स्लमडॉग मिलेनियर फिलम का 11 नामांकन होना अवार्ड मिलने की उम्मीद तो बढाती है लेकिन आजादी के इकसठ् साल बाद भी ऐसे हालातों पर तरस आनी चाहीएं कि रेल्वे स्टेशन पर क्यों भीख दिया जाएं, उस बच्चे को भीख्ा की बजाय अधिकारों के बारे में क्यों नही बताया जाएं, क्यो ना हर व्यक्ति अपने अधिकारों का ख्याल रखकर जिला अधिकारी से सवाल करे की बच्चे आखिर ऐसा क्यो कर रहे है कौन मजबूर कर रहा है इन्हे अपना बचपन बर्बाद करने के लिएा
ऑस्कर नामांकित स्लमडॉग मिलेनियर को मेरी अग्रिम शुभकामनाएं
ऑस्कर मिले या ना मिले लेकिन सामाजिक संस्था और सरकार के बचपन को लेकर ऐसे अनेक वादे हुए है तारे जमीं पर उतारे गए और एक नौजवान करोडपति भी बना फिर भी भारत देश की दशा नही सुध्ारी दिखीा दिशा सुधारने की बात ही छोडिएंा मधुर भंडारकर असलियत को पर्दे पर उतारने मे माहिर माने जाते है जो ट्रेफिक सिग्नल मे दिख भी, वही आमिर खान गिने चुने फिल्मों मे अपनी अदाकारी की छाप छोडते है ये सारे मशहूर हस्तियां जिसके सामने ये विषय कोई समस्या ना होकर पैसा बनाने की मशीन है फिर भी वास्तविक्ता यही है आज भी लोग भूखे नंगेऔर सडक पर सोने को मजबूर है शायद इनको ऑस्कर मिलता तो अमीरी गरीबी का भेदभाव कम होता लेकिन अक्सर ऐसा नही होगा मेरे देश मे गरीब गरीब ही रहे तो ठीक है आदिवासी छोटे कपडे पहने तो ठीक, कबिलों देहात गांवो में कोई महिला अर्दनग्न दिख्ो तो ठीक है क्यों कि पैसा बनाते है अगर गरीबी खत्म हो गई तो पैसा कमाने का नया आयडिया कहां से आएंगे
स्लमडॉग मिलेनियर को ऑस्कर एवार्ड मिलने या ना मिलने के पीछे एक बात जरूर सोचनीय है कि अगर ये एवार्ड एक ऐसी फिल्म को मिलती जिससे कि जाति, धर्म, छुआछुत रंगभेद सब मिट जाएं तो शायद हमारे महापुरूषों और अनगित देशवासियों पर भारतीय होने का गर्व सौगुणा और बढ जाएगां ,, स्लमडॉग मिलेनियर फिलम का 11 नामांकन होना अवार्ड मिलने की उम्मीद तो बढाती है लेकिन आजादी के इकसठ् साल बाद भी ऐसे हालातों पर तरस आनी चाहीएं कि रेल्वे स्टेशन पर क्यों भीख दिया जाएं, उस बच्चे को भीख्ा की बजाय अधिकारों के बारे में क्यों नही बताया जाएं, क्यो ना हर व्यक्ति अपने अधिकारों का ख्याल रखकर जिला अधिकारी से सवाल करे की बच्चे आखिर ऐसा क्यो कर रहे है कौन मजबूर कर रहा है इन्हे अपना बचपन बर्बाद करने के लिएा
ऑस्कर नामांकित स्लमडॉग मिलेनियर को मेरी अग्रिम शुभकामनाएं
Sunday, February 1, 2009
क्या होगा हम हिन्दुओं का.....।
बसंत पंचमी पर्व भारत में अपना विशेष महत्व रखता है। क्योंकि इसी दिन से बसंत रितु की शुरूआत होती है। लंबे समय से ज्ञान की देवी सरस्वती मां की पूजा-अर्चना की जाती रही है, जो आज भी चल रही है। जो कि स्कूलों-कॉलेजों में बड़े रूप में मनाए जाते हैं। हिन्दू धर्म में सरस्वती माता को ज्ञान की देवी भी कहा जाता है। हिन्दू होने के नाते मुझे गर्व होने के बजाय ये सवाल मन में है कि आखिर हिन्दू देवी-देवताओं का सम्मान कहां पर हो रहा है।
मेरे मोहल्ले और कॉलेज में अण्डा पेड़ लगाकर पूजा-अर्चना शुरू की गई और तरह-तरह के कार्यक्रमों से दिन को यादगार बनाने की कोशिश भी की गई। हिन्दू धर्म के अनुसार ज्ञान की देवी माता सरस्वती है। लेकिन क्या दूसरे धर्म के लोग भी माता सरस्वती को ज्ञान की देवी मानते हैं। मेरे इस प्रश्न से अच्छे-अच्छे विचारों पर विराम लग सकता है। क्योंकि अगर सभी धर्म के लोग सरस्वती माता को ज्ञान की देवी नहीं मानते। तो फिर मेरे धर्म के लोग सरस्वती माता का अपमान खुशी से क्यों स्वीकार कर रहे हैं। इस मान, सम्मान और अपमान की बात के बीच सार्वजनिक जगहों पर पत्थर रखकर सिंदूर लगाकर पूजना और फिर देवी-देवताओं को मंदिर के बजाय रोड, गंदगी या फिर किसी भी सार्वजनिक स्थानों पर पूजना क्या हिन्दू धर्म के संस्कार हैं। अगर नहीं तो क्यों ऐसे काम हिन्दुवादी विचारधारा वाले कर रहे हैं। क्या सिर्फ पूजा-पाठ, यज्ञ करने से ही धर्म की सर्वोच्च्ाता बढ़ती है।
मेरे विश्वविद्यालय में बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा और हवन कार्यक्रम आयोजित की गई और सभी छात्रों ने हिस्सेदारी भी निभाई, सिवाय मेरे........... । मेरे पूजा-पाठ में शामिल नहीं होने पर मेरे मित्र तरह-तरह की धारणाएं बनाने लगे। कुछ मित्रों ने मुझे कहा कि क्यों हिन्दू धर्म में रहने का इरादा नहीं है क्या पापी। तो कुछ छात्रों ने आतंकवादी कहकर संबोधित किया। पत्रकारिता के छात्रों के इस कृत्य पर हंसी तो आई लेकिन बसंत पंचमी कीफिकर करके मैं चुप हो गया। कुछ अन्य धर्म के मित्र मेरे साथ लाइब्रेरी में बैठे बोलने लगे कि अरे यार तेरे धर्म में देवी-देवताओं को सार्वजनिक जगह में पूजने का क्या अर्थ, इनका स्थान तो मंदिर में होना चाहिए। कुछ देर तक मैं चुप बैठा लेकिन वास्तव में मुझे अपने धर्म में रहकर अपने ही हिन्दू धर्म के लोगों पर गुस्सा भी आया। चूंकि हिन्दू धर्म पहले से ही वर्ण-व्यवस्था से घिरी हुई है, जिसमें शुद्रों की स्थिति दयनीय है। हिन्दू धर्म में ब्राह्मण वर्ग का श्रेष्ठ होना और धर्म को बदनाम करने की साजिश क्या वास्तव में उच्च वर्णों के हाथ में है।
ब्राह्मणवाद को लेकर मुझे कोई शिकायत नहीं है। शिकायत तो मुझे हिन्दू देवी-देवताओं का सार्वजनिक जगहों में पूजने पर है। हिन्दू धर्म के अलावा किसी भी धर्म के लोग अपने ईश्वर के साथ इतनी ज्यादती नहीं करते सिवाय हिन्दू धर्म के। मार्क्स के विचार कि राष्ट्र के विकास में धर्म अफीम है। इसके बावजूद भी क्या देश में हिन्दू देवी-देवताओं का और हिन्दू धर्म का हित हो पाएगा।
मेरे मोहल्ले और कॉलेज में अण्डा पेड़ लगाकर पूजा-अर्चना शुरू की गई और तरह-तरह के कार्यक्रमों से दिन को यादगार बनाने की कोशिश भी की गई। हिन्दू धर्म के अनुसार ज्ञान की देवी माता सरस्वती है। लेकिन क्या दूसरे धर्म के लोग भी माता सरस्वती को ज्ञान की देवी मानते हैं। मेरे इस प्रश्न से अच्छे-अच्छे विचारों पर विराम लग सकता है। क्योंकि अगर सभी धर्म के लोग सरस्वती माता को ज्ञान की देवी नहीं मानते। तो फिर मेरे धर्म के लोग सरस्वती माता का अपमान खुशी से क्यों स्वीकार कर रहे हैं। इस मान, सम्मान और अपमान की बात के बीच सार्वजनिक जगहों पर पत्थर रखकर सिंदूर लगाकर पूजना और फिर देवी-देवताओं को मंदिर के बजाय रोड, गंदगी या फिर किसी भी सार्वजनिक स्थानों पर पूजना क्या हिन्दू धर्म के संस्कार हैं। अगर नहीं तो क्यों ऐसे काम हिन्दुवादी विचारधारा वाले कर रहे हैं। क्या सिर्फ पूजा-पाठ, यज्ञ करने से ही धर्म की सर्वोच्च्ाता बढ़ती है।
मेरे विश्वविद्यालय में बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा और हवन कार्यक्रम आयोजित की गई और सभी छात्रों ने हिस्सेदारी भी निभाई, सिवाय मेरे........... । मेरे पूजा-पाठ में शामिल नहीं होने पर मेरे मित्र तरह-तरह की धारणाएं बनाने लगे। कुछ मित्रों ने मुझे कहा कि क्यों हिन्दू धर्म में रहने का इरादा नहीं है क्या पापी। तो कुछ छात्रों ने आतंकवादी कहकर संबोधित किया। पत्रकारिता के छात्रों के इस कृत्य पर हंसी तो आई लेकिन बसंत पंचमी कीफिकर करके मैं चुप हो गया। कुछ अन्य धर्म के मित्र मेरे साथ लाइब्रेरी में बैठे बोलने लगे कि अरे यार तेरे धर्म में देवी-देवताओं को सार्वजनिक जगह में पूजने का क्या अर्थ, इनका स्थान तो मंदिर में होना चाहिए। कुछ देर तक मैं चुप बैठा लेकिन वास्तव में मुझे अपने धर्म में रहकर अपने ही हिन्दू धर्म के लोगों पर गुस्सा भी आया। चूंकि हिन्दू धर्म पहले से ही वर्ण-व्यवस्था से घिरी हुई है, जिसमें शुद्रों की स्थिति दयनीय है। हिन्दू धर्म में ब्राह्मण वर्ग का श्रेष्ठ होना और धर्म को बदनाम करने की साजिश क्या वास्तव में उच्च वर्णों के हाथ में है।
ब्राह्मणवाद को लेकर मुझे कोई शिकायत नहीं है। शिकायत तो मुझे हिन्दू देवी-देवताओं का सार्वजनिक जगहों में पूजने पर है। हिन्दू धर्म के अलावा किसी भी धर्म के लोग अपने ईश्वर के साथ इतनी ज्यादती नहीं करते सिवाय हिन्दू धर्म के। मार्क्स के विचार कि राष्ट्र के विकास में धर्म अफीम है। इसके बावजूद भी क्या देश में हिन्दू देवी-देवताओं का और हिन्दू धर्म का हित हो पाएगा।
Monday, January 26, 2009
पूर्ण्अपमान दिवस
26 जनवरी एक ऐसा पर्व जिसका इंतजार हर देशवासियों और खासकर देशभक्तों को आस रहती है मेरी प़त्रकारिता और कुछ अलग करने की उम्मीद ने मुझे एक बार फिर अपने अपने अस्तित्व की ओर झाकने को मजबूर किया है उच्च शिक्षा प्राप्त मेरी शिक्षा देश के काम नही आई. शिक्षा का महत्तव बताने वाले शिक्ष्ाक मुकदर्शक बन सभी आयोजनो का मजा लेते रहेा पता नही चला की 26 जनवरी की सुबह देश के महत्तव को जानने के लिए था या संविधान के अनुसार अपने कार्य को अपनी जिम्मेदारी के साथ पूर्ण करने का
गली मोहल्ले मे तिरंगा फहराने का इंतजार करते लोग और खुशी के बीच मेरी चुप्पी ना जाने क्यों मन ही मन चुभ रही थी तिरंगे के नीचे महापुरूषों की दुर्दशा अपने अपमान से कम नही इन सब मे भी चौकाने वाली बात रही गांधीमय ध्वजारोहण मै मेरी भावनाओं के साथ या किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड करना नही चाहता लेकिन मेरी बेबाकी जायज है क्यों कि संविधान के निर्माता डा; भीमराव अम्बेडकर फिर अछूते दिखें ृृृृृ आजादी से पूर्व अपने आजादी की परवाह किए बिना अछूतों के हक की लडाई लडने वाले मेरे आदर्श महापुरूष को उन्ही लोगो ने अछूत बना दिया जो गर्व से इस महापुरूष के च्रयास से उच्च पदो पर आसीन है। गली मोहल्ले कालोनी मे तो गांधी मगर मेरे देश में क्या बाबा साहब के लिए नही है. मै हमेशा तो ऐसी मांगे नही करता लेकिन क्या बाबा साहेब को पूजा जाना या उनके कार्यों की बखान करना अछूतों की श्रेणी मे खडा करता है मुझे मेरी जिम्मेदारीयों का एहसास भी है फिर भी मै कुछ नही कर सकता
मै दावा के साथ कह सकता हू की मेरे देश मे छूआछूत खत्म नही हुआ है और छूआछूत खत्म करना कोई नही चाहता क्यो की मान-सम्मान और प्रतिष्ठा इसी सें बनी रहती है इन सबके बावजूद कोई संविधान के बारे मे कुछ बताना नही चाहता और क्यो बताएं अगर आम लोगो को अपने अधिकारों की जानकारी हो गई और जाग गए तों देश में भ्रष्ट मंत्री अधिकारी आई एस कुलपति नही बनेंगे लेकिन कुछ स्वार्थ के लिए महापुरूषो का अपमान हुआ है खासकर एससी एसटी और ओबीसी वर्ग के उच्च पदस्थ लोगो को शर्म आनी चाहिए जो इन महापरूषों के सम्मान के लायक नही है।
गली मोहल्ले मे तिरंगा फहराने का इंतजार करते लोग और खुशी के बीच मेरी चुप्पी ना जाने क्यों मन ही मन चुभ रही थी तिरंगे के नीचे महापुरूषों की दुर्दशा अपने अपमान से कम नही इन सब मे भी चौकाने वाली बात रही गांधीमय ध्वजारोहण मै मेरी भावनाओं के साथ या किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड करना नही चाहता लेकिन मेरी बेबाकी जायज है क्यों कि संविधान के निर्माता डा; भीमराव अम्बेडकर फिर अछूते दिखें ृृृृृ आजादी से पूर्व अपने आजादी की परवाह किए बिना अछूतों के हक की लडाई लडने वाले मेरे आदर्श महापुरूष को उन्ही लोगो ने अछूत बना दिया जो गर्व से इस महापुरूष के च्रयास से उच्च पदो पर आसीन है। गली मोहल्ले कालोनी मे तो गांधी मगर मेरे देश में क्या बाबा साहब के लिए नही है. मै हमेशा तो ऐसी मांगे नही करता लेकिन क्या बाबा साहेब को पूजा जाना या उनके कार्यों की बखान करना अछूतों की श्रेणी मे खडा करता है मुझे मेरी जिम्मेदारीयों का एहसास भी है फिर भी मै कुछ नही कर सकता
मै दावा के साथ कह सकता हू की मेरे देश मे छूआछूत खत्म नही हुआ है और छूआछूत खत्म करना कोई नही चाहता क्यो की मान-सम्मान और प्रतिष्ठा इसी सें बनी रहती है इन सबके बावजूद कोई संविधान के बारे मे कुछ बताना नही चाहता और क्यो बताएं अगर आम लोगो को अपने अधिकारों की जानकारी हो गई और जाग गए तों देश में भ्रष्ट मंत्री अधिकारी आई एस कुलपति नही बनेंगे लेकिन कुछ स्वार्थ के लिए महापुरूषो का अपमान हुआ है खासकर एससी एसटी और ओबीसी वर्ग के उच्च पदस्थ लोगो को शर्म आनी चाहिए जो इन महापरूषों के सम्मान के लायक नही है।
Friday, January 9, 2009
शिक्षा के क्षेत्र में जातिवाद हावी
भारत को लोकतांत्रिक देश की संज्ञा दी गई है लेकिन लोगों का जीवन लोकतांत्रिक देश के अनुकूल नही है यहां हर क्षेत्र में समस्या ही समस्या है लोगों की समस्या के समाधान करने वाले को दबा दिया जाता है और न्याय संगत बाते करने पर आरोप जड़ दिए जाते हैं। ये किसी किताब से पढ़ा हुआ नही है और ना ही किसी के द्वारा बताया गया हैं। ऐसे हालात मुझ पर ही बन चुके हैं या कहे शिक्षा व्यवस्था पर वर्ग विशेष्ा का दबाव है कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविघालय अपने लक्ष्य से भटक चुका है पत्रकारिता की शिक्षा देने के बजाय (ब्राम्हण) वर्ग विशेष को अच्छे नम्बर दिए जाते है मेरा मक्सद हिन्दू धर्म की बुराई करना तो नहीं, लेकिन बेबाक बोलना मेरी बुराई है ये सभी शिक्षक कहते है सेमेस्टर की पढाई परीक्षा का परिणाम आ चुका है जिसका कोई औचित्य नही है पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष भी अधिकतर छात्र-छात्राएं परीक्षा परिणाम को लेकर असंतुष्ट हैं। वहीं इस वर्ष चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। उत्तीर्ण परीक्षार्थियों की संख्या 76.92 प्रतिशत रही और अधिकतर छात्रों को पूरक दे दिया गया। लेकिन इन सबमें भी चौकाने वाली बात रही। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के छात्र जीतेन्द्र सोनकर को एक विषय में पूरक दे दिया गया। जोकि निजी टीवी चैनल में संबंधित विषय के अंतर्गत कार्यरत् हैं। जिस विषय में पूरक दिया गया वो है एडिटिंग ग्राफिक्स। जिसे बतौर नॉन लीनियर एडिटर की मुख्य भूमिका में 3 साल का अनुभव है। मीडिया क्षेत्र में अनुभव प्राप्त छात्र को पूरक देना विश्वविद्यालय के लिए एक शर्मनाक बात है और जाहिर है कि परीक्षा परिणाम में त्रुटियां पाई गई है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विभागाध्यक्ष से इस विषय पर बात करने पर आश्वासन के सिवाय कुछ न्याय संगत बातें नहीं मिली।
विभिन्न विषयों के परिणामों को देखें तो चौकाने वाले परिणाम आते हैं जिसमें लगातार 2 सेमेस्टर से प्रथम श्रेणी पर उत्तीर्ण छात्र को इस बार सेकेण्ड दर्जा दिया है। वहीं एम.जे. के छात्र में भी काफी फेरबदल हुए हैं। कुल मिलाकर सभी विषयों में विशेष वर्ग को महत्व दिया गया है। जितने भी छात्र पहले पायदान पर पहुंचे हैं वे सभी ऊंची जाति के हैं। जिनमें अधिकतर शर्मा, मिश्रा, शुक्ला जैसे उपनाम वाले छात्र हैं। वहीं पिछले सेमेस्टर के परिणाम में जाति विशेष को दर्जा नहीं दिया गया था। इस सेमेस्टर के उत्तीर्ण छात्र जो कि अच्छे नंबरों से अच्छे पायदान पर पहुंच चुके हैं। उन छात्रों को अच्छे पायदान पर पहुंचने का अंदाजा तो दूर पूरक आने तक का डर था। उसी डर ने इस तरह की जातिगत नंबरों को महत्व देने के आधार पर विश्वविद्यालय पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
असंतुष्टों की श्रेणी में ब्राह्मण वर्ग को छोड़ सभी निम्न वर्ग की श्रेणी में आते हैं। एस.टी.,एस.सी. और ओबीसी छात्र-छात्राओं का गुस्सा फूट रहा है। वाकई अगर हालात ऐसे ही बने तो वो दिन दूर नहीं जब हिन्दू खुद आपस में वर्ग विशेष के लिए न्याय पाने हिंसात्मक कदम उठा लेंगे। विश्वविद्यालय में बहुत सारी गतिविधियां ऐसी होती है जो कि जाति के आधार पर जाति में खुद को ऊंचे पायदान पर पहुंचाने की कोशिश रहती है। मेरा मकसद न ही जातिगत भावनाओं में फूट डालना है और न ही जाति के आधार पर भेदभाव करना है। लेकिन अगर बात शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र की हो तो शिक्षा अधिकारी को चुप नहीं बैठना चाहिए क्योंकि राष्ट्रभक्ति में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मेरा स्वयं पूरक आना पता नहीं मेरी पत्रकारिता में कितने आड़े आती है, लेकिन मैं उन पत्रकारों में से नहीं हूं जो प्रथम श्रेणी के आधार पर पत्रकार बनते हैं। अनगिनत लेखकों एवं विद्वानों के मदद से मैं अपनी बेबाकी को समय आने पर ज़रूर प्रस्तुत करूंगा।
विभिन्न विषयों के परिणामों को देखें तो चौकाने वाले परिणाम आते हैं जिसमें लगातार 2 सेमेस्टर से प्रथम श्रेणी पर उत्तीर्ण छात्र को इस बार सेकेण्ड दर्जा दिया है। वहीं एम.जे. के छात्र में भी काफी फेरबदल हुए हैं। कुल मिलाकर सभी विषयों में विशेष वर्ग को महत्व दिया गया है। जितने भी छात्र पहले पायदान पर पहुंचे हैं वे सभी ऊंची जाति के हैं। जिनमें अधिकतर शर्मा, मिश्रा, शुक्ला जैसे उपनाम वाले छात्र हैं। वहीं पिछले सेमेस्टर के परिणाम में जाति विशेष को दर्जा नहीं दिया गया था। इस सेमेस्टर के उत्तीर्ण छात्र जो कि अच्छे नंबरों से अच्छे पायदान पर पहुंच चुके हैं। उन छात्रों को अच्छे पायदान पर पहुंचने का अंदाजा तो दूर पूरक आने तक का डर था। उसी डर ने इस तरह की जातिगत नंबरों को महत्व देने के आधार पर विश्वविद्यालय पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
असंतुष्टों की श्रेणी में ब्राह्मण वर्ग को छोड़ सभी निम्न वर्ग की श्रेणी में आते हैं। एस.टी.,एस.सी. और ओबीसी छात्र-छात्राओं का गुस्सा फूट रहा है। वाकई अगर हालात ऐसे ही बने तो वो दिन दूर नहीं जब हिन्दू खुद आपस में वर्ग विशेष के लिए न्याय पाने हिंसात्मक कदम उठा लेंगे। विश्वविद्यालय में बहुत सारी गतिविधियां ऐसी होती है जो कि जाति के आधार पर जाति में खुद को ऊंचे पायदान पर पहुंचाने की कोशिश रहती है। मेरा मकसद न ही जातिगत भावनाओं में फूट डालना है और न ही जाति के आधार पर भेदभाव करना है। लेकिन अगर बात शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र की हो तो शिक्षा अधिकारी को चुप नहीं बैठना चाहिए क्योंकि राष्ट्रभक्ति में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। मेरा स्वयं पूरक आना पता नहीं मेरी पत्रकारिता में कितने आड़े आती है, लेकिन मैं उन पत्रकारों में से नहीं हूं जो प्रथम श्रेणी के आधार पर पत्रकार बनते हैं। अनगिनत लेखकों एवं विद्वानों के मदद से मैं अपनी बेबाकी को समय आने पर ज़रूर प्रस्तुत करूंगा।
Wednesday, January 7, 2009
ताराचंद छत्तीसगढिया बनाम प्रेमप्रकाश बिहारी
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भाजपा के दिग्गजों की हार से आलाकमान को कार्यवाही करने के लिए मजबूर होना पड़ा। भिलाई विधानसभा से पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पाण्डे को हराने के लिए भाजपा सांसद ताराचंद साहू पर कार्यवाही कर उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। पार्टी से निष्कासित होने के बाद भाजपा सांसद ताराचंद साहू के तेवर नरम नहीं पड़े बल्कि और ज्यादा गर्म हो गए हैं। जो बात भिलाई तक सीमित थी। अब निष्कासन के पश्चात पूरे प्रदेश में फैल गई कि छत्तीसगढि़यों की अस्मिता को समझने के लिए छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी प्रत्याशी और जनता का प्रिय होना ज़रूरी है।
मुद्दा वही पुराना है। जब महाराष्ट्र में बिहारियों पर लाठी बरस रहे थे। तो वहीं छत्तीसगढ़ में भी अस्मिता के लिए सांसद ताराचंद साहू और उनके समर्थकों ने भिलाई के बिहारी नेता (पूर्व विधानसभा अध्यक्ष) प्रेमप्रकाश पाण्डे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और देखते ही देखते बात मारपीट तक पहुंच गई है। जो कि आज तक चल रही है। छत्तीसगढ़ प्रदेश एक औद्योगिक क्षेत्र है। जहां अधिकतर रोजगार बिहारियों को और दक्षिण भारतीयों को मिला है। जहां भिलाई की कहें तो छोटा बिहार के नाम से भी जाना जाता है। ये मुद्दा क्षेत्रवाद का नहीं है, लेकिन स्थानीय निवासियों को हीन-भावना से देखना और बिहार के लोगों को भिलाई में रोजगार दिलाने जैसे कार्य को लंबे समय से प्रेमप्रकाश पाण्डे करते आ रहे हैं। छत्तीसगढियों को डरा-धमकाकर अपने रिश्तेदारों, पहचानवालों को इस्पात संयंत्र में रोजगार दिलाने जैसी बात लंबे समय से चल रहा है। चूंकि पाण्डे जी इस्पात संयंत्र के अध्यक्ष भी थे जिनकी पहचान वरिष्ठ अधिकारियों से भी थी। जो छत्तीसगढियों के शोषण के लिए बहुत था। समय बीतने के साथ अधिकतर बिहारियों का दमन भिलाई के छत्तीसगढियों के खिलाफ बढ़ता गया। महाराष्ट्र की घटना ने छत्तीसगढियों की नींद उड़ा दी और अपने हक के लिए भिलाई निवासी शक्ति प्रदर्शन (मारपीट) करने से नहीं चूके।
राजठाकरे की भूमिका ने भले ही महाराष्ट्र में आग लगाई है लेकिन छत्तीसगढ़ में भी इसका असर देखा गया और छत्तीसगढिया बिहारियों के वर्चस्व ने लड़ाई के लिए विवश किया। मुझे ज़्यादा जानकारी बिहारियों के बारे में नहीं था। लेकिन भिलाई जाने पर पता चला कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासी झोपड़ी में और बिहारी बड़ी मंजिलों में रहते हैं इसका मुख्य कारण बिहारियों की असलियत सामने लाती है। मगर सोचने के लिए प्रेरित करने वाला वाक्या ये है कि क्या पूरे प्रदेश में बिहारी ऐसे ही हैं या फिर बिहार के लोग ही ऐसा करते हैं। पूरे प्रदेश का तो पता नहीं लेकिन फिलहाल सांसद और पूर्व विधायक के बीच छत्तीसगढियों और बिहारियों के वर्चस्व की लड़ाई भाजपा ने सांसद ताराचंद साहू के निष्कासन से शुरू कर दिया है। और आगे चलकर इसका परिणाम भी मिल सकता है। लेकिन बिहारियों का भविष्य छत्तीसगढ़ में ? ? ?
मुद्दा वही पुराना है। जब महाराष्ट्र में बिहारियों पर लाठी बरस रहे थे। तो वहीं छत्तीसगढ़ में भी अस्मिता के लिए सांसद ताराचंद साहू और उनके समर्थकों ने भिलाई के बिहारी नेता (पूर्व विधानसभा अध्यक्ष) प्रेमप्रकाश पाण्डे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और देखते ही देखते बात मारपीट तक पहुंच गई है। जो कि आज तक चल रही है। छत्तीसगढ़ प्रदेश एक औद्योगिक क्षेत्र है। जहां अधिकतर रोजगार बिहारियों को और दक्षिण भारतीयों को मिला है। जहां भिलाई की कहें तो छोटा बिहार के नाम से भी जाना जाता है। ये मुद्दा क्षेत्रवाद का नहीं है, लेकिन स्थानीय निवासियों को हीन-भावना से देखना और बिहार के लोगों को भिलाई में रोजगार दिलाने जैसे कार्य को लंबे समय से प्रेमप्रकाश पाण्डे करते आ रहे हैं। छत्तीसगढियों को डरा-धमकाकर अपने रिश्तेदारों, पहचानवालों को इस्पात संयंत्र में रोजगार दिलाने जैसी बात लंबे समय से चल रहा है। चूंकि पाण्डे जी इस्पात संयंत्र के अध्यक्ष भी थे जिनकी पहचान वरिष्ठ अधिकारियों से भी थी। जो छत्तीसगढियों के शोषण के लिए बहुत था। समय बीतने के साथ अधिकतर बिहारियों का दमन भिलाई के छत्तीसगढियों के खिलाफ बढ़ता गया। महाराष्ट्र की घटना ने छत्तीसगढियों की नींद उड़ा दी और अपने हक के लिए भिलाई निवासी शक्ति प्रदर्शन (मारपीट) करने से नहीं चूके।
राजठाकरे की भूमिका ने भले ही महाराष्ट्र में आग लगाई है लेकिन छत्तीसगढ़ में भी इसका असर देखा गया और छत्तीसगढिया बिहारियों के वर्चस्व ने लड़ाई के लिए विवश किया। मुझे ज़्यादा जानकारी बिहारियों के बारे में नहीं था। लेकिन भिलाई जाने पर पता चला कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासी झोपड़ी में और बिहारी बड़ी मंजिलों में रहते हैं इसका मुख्य कारण बिहारियों की असलियत सामने लाती है। मगर सोचने के लिए प्रेरित करने वाला वाक्या ये है कि क्या पूरे प्रदेश में बिहारी ऐसे ही हैं या फिर बिहार के लोग ही ऐसा करते हैं। पूरे प्रदेश का तो पता नहीं लेकिन फिलहाल सांसद और पूर्व विधायक के बीच छत्तीसगढियों और बिहारियों के वर्चस्व की लड़ाई भाजपा ने सांसद ताराचंद साहू के निष्कासन से शुरू कर दिया है। और आगे चलकर इसका परिणाम भी मिल सकता है। लेकिन बिहारियों का भविष्य छत्तीसगढ़ में ? ? ?
Subscribe to:
Posts (Atom)